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________________ दूसरा नाम 'वेदना कृत्स्नप्राभृत' भी है । वेदना का अर्थ कर्मों का उदय है, उसका वह चूंकि कृत्स्न - पूर्ण रूप से वर्णन करता है, इसलिए उसका 'वेदनाकृत्स्नप्राभृत' यह दूसरा नाम भी गुणनाम (सार्थक नाम) है । ' अर्थाधिकार के प्रसंग में उसके ये चौबीस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सात असात, दीर्घ ह्रस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्त, निधत्त-अनिधत्त, निकाचितअनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और सर्वत्र (पूर्व के सभी अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध) अल्पबहु । इन चौबीस अधिकारों में यहाँ छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार प्रसंगप्राप्त है । " प्रसंग में उस बन्धन अनुयोगद्वार को भी चार प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है— बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमें से प्रकृत में बन्धक और बन्धविधान ये दो अर्थाधिकार प्रसंगप्राप्त हैं । 3 इनमें बन्धक अर्थाधिकार में ये ग्यारह अनुयोगद्वार हैं एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम, नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इनमें यहाँ पाँचवाँ द्रव्यप्रमाणानुगम प्रकृत है। उससे पूर्वनिर्दिष्ट जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों में से दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार निकला है। * बन्धविधान चार प्रकार का है— प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध | इनमें प्रकृतिबन्ध मूल और उत्तर प्रकृतिबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। उनमें दूसरा उत्तरप्रकृतिबन्ध भी दो प्रकार का है— एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढ प्रकृतिबन्ध । इनमें भी एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के चौबीस अनुयोगद्वार हैं- समुत्कीर्तना, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिकबन्ध, अनादिकबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्धअन्तर, बन्धसंनिकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्व जीवस्थानगत प्रकृति समुत्कीर्तनादि पाँच चूलिकाओं का उद्गम उपर्युक्त २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार से प्रकृतिसमुत्कीर्तना, स्थानसमुत्कीर्तना और तीन महादण्डक - जीवस्थान की ६ चूलिकाओं में ये पाँच चूलिकाएं १. धवला पु० १, पृ० १२३-२५ २. वही, पृ० १२५ तथा पु० ६, पृ० २३१-३६ ( यहाँ उक्त कृति व वेदना आदि २४ अनुयोगद्वारों में प्ररूपित विषय को भी प्रकट किया गया है ।) ३. धवला पु० १, पृ० १२६ ( ष० ख० पु० १४, पृ० ५६४ में सूत्र ५, ६, ७६७ भी द्रष्टव्य हैं) ४. वही, पृ० १२६ ( ष० ख० पु० ७, पृ० २४ में सूत्र २१, १-२ द्रष्टव्य हैं) ५. धवला पु० १, पृ० १२७ ३७४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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