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________________ मरणक्रम के भेद से दो प्रकार का है। यह जो सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि से मरण को प्राप्त हुए व सबसे दीर्घकाल में निर्लेप्यमान जीवों के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण प्रकट किया गया है वह अयवमध्यक्रम के अनुसार है । 'निर्लेप्यमान' से अभिप्राय आहार, शरीर, इन्द्र और आन-प्राण अपर्याप्तियों की निर्वृत्ति स्वरूप निर्लेपन को प्राप्त होनेवाले जीवों से है । उनके अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण जो आवलि के असंख्यातवें भागमात्र कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि क्षीणकषाय के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे जीवों के निगोद आवलि के असंख्यातवें भाग शेष रहते हैं । निगोद और पुलवि ये समानार्थक शब्द हैं । क्षीणकषाय के अन्तिम समय में असंख्यात लोकमात्र निगोदशरीर होते हैं । उनमें से प्रत्येक शरीर में मरने से शेष रहे जीव अनन्त होते हैं । उनकी आधारभूत पुलवियाँ आवलि के असंख्यातवें भागमात्र होती हैं यही जघन्य बादरनिगोदवर्गणा का प्रमाण है । इस प्रसंग में धवलाकार ने क्षीणकषायकाल के भीतर व थूवर आदि में मरनेवाले जीवों की प्ररूपणा - प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि और अल्पबहुत्व - इन चार अनुयोगद्वारों के आश्रय से की है । " arrerraria में जघन्य आयुमात्र काल के शेष रह जाने पर बादर निगोदजीव क्षीणकषाय शरीर में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनके जीवनयोग्य काल शेष नहीं रहा है। इसी अभिप्राय के ज्ञापनार्थ उक्त आयुओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । निगोदवर्गणाओं के कारणों की प्ररूपणा के प्रसंग में आगे कहा गया है कि इन्हीं सब निगोदों (बादर निगोदों) के मूल कारण ये महास्कन्धस्थान ( महास्कन्ध के अवयव ) हैं - आठ पृथिवियाँ, टंक, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तार, नरक, नरकेन्द्रक, नरकप्रस्तार, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृणवनस्पति आदि (६४०-४१) । शिलामय पर्वतों पर जो वापी, कुआँ, तालाब व जिनगृह आदि उकेरे जाते हैं उनका नाम टंक है । मेरू, कुलाचल, विन्ध्य व सह्य आदि पर्वतों को कूट कहा जाता है । आगे महास्कन्धवर्गणा के जघन्य उत्कृष्ट भाव कैसे होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जब मास्कन्ध स्थानों का जघन्य पद होता है तब बादर त्रस पर्याप्तों का उत्कृष्ट पद होता है और जब बादर त्रस पर्याप्तों का जघन्य पद होता है तब मूल महास्कन्ध स्थानों का उत्कृष्ट पद होता है (६४०-४३) । पश्चात् 'अब यहाँ महादण्डक किया जाता है' ऐसा निर्देश करते हुए अपर्याप्तनिवृत्ति, आवश्यक, यवमध्य, शमिलामध्य, निर्लेपनस्थान, आयुबन्धयवमध्य, मरणयवमध्य, औदारिकादि शरीरों के निर्वृत्तिस्थान, इन्द्रियनिवृत्तिस्थान, आनपान-भाषा-मननिर्वृत्तिस्थान इत्यादि प्रसंगप्राप्त विषयों की चर्चा विविध अल्पबहुत्वों के आश्रय से की गई है ( ६४३-७०५) । इस प्रकार से ‘जत्थेउ मरइ जीवो' आदि गाथा के अर्थ की प्ररूपणा समाप्त हुई हैं । पूर्व में २३ वर्गणाओं की प्ररूपणा के प्रसंग में सामान्य से ग्रहण प्रायोग्य और अग्रहणप्रायोग्य वर्गणाओं का निर्देश किया गया था । अब यहाँ ये वर्गणाएँ पाँच शरीरों के ग्रहण योग्य हैं और ये उनके ग्रहण योग्य नहीं हैं, इसके परिज्ञापनार्थ इन चार अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है - वर्गणात्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व ( ७०६) । १. धवला पु० १४, पृ०४८७-९१ १३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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