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________________ वर्गणाप्ररूपणा में एक प्रदेशी पुद्गलवर्गणा से लेकर कार्मणद्रव्यवर्गणा पर्यन्त वर्गणाओं का उल्लेख किया गया है (७०७-१८)। वर्गणानिरूपणा में उपर्युक्त वर्गणाओं में कौन ग्रहणप्रायोग्य हैं और कौन अग्रहणप्रायोग्य हैं, इसे स्पष्ट करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप को भी दिखलाया गया है (७१६-५८) । प्रदेशार्थता-यहाँ औदारिकादि शरीरद्रव्यवर्गणाओं में प्रत्येक के प्रदेशों और वर्ण-रसादि को स्पष्ट किया गया है (७५६-६३)। अल्पबहुत्व–यहाँ औदारिकादि शरीरद्र व्यवर्गणाओं में प्रत्येक के प्रदेशों की अपेक्षा और अवगाहना की अपेक्षा दो प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (७८४-६६)। ___ इस प्रकार अनेक अनुयोगद्वारों व अवान्तर अनुयोगद्वारों के आश्रय से वर्गणाओं की सविस्तार प्ररूपणा के समाप्त होने पर बन्धनीय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। बन्धविधान __ यह प्रस्तुत बन्धन अनुपोगद्वार के अन्तर्गत चार अधिकारों में अन्तिम है । वह बन्धविधान प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है (१९७)। ___इसके प्रसंग में धवलाकार ने यह ग्पष्ट कर दिया है कि इन चारों बन्धों के विधान की प्ररूपणा भूतबलि भट्टारक ने महाबन्ध में बहुत विस्तार से की है, इसलिए वहाँ हमने उसकी प्ररूपणा नहीं की है । अतएव यहाँ समस्त महाबन्ध की प्ररूपणा करने पर बन्धविधान समाप्त होता है। इस प्रकार बन्ध, बन्ध क, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों अधिकारों के समाप्त होने पर यह बन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । यह षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से १४वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है। इस बन्धन अनुयोगद्वार के साथ षट्खण्डागम का पाँचवाँ वर्गणाखण्ड समाप्त होता है । षष्ठ खण्ड : महाबन्ध महाबन्ध षट्खण्डागम का छठा खण्ड है। जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, इसके दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध में बन्धक जीवों की प्ररूपणा स्वामित्व आदि ११ अनुयोगद्वारों के आश्रय से की गई है। परन्तु इस महाबन्ध खण्ड में उस बन्ध की प्ररूपणा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के क्रम से अनेक अनयोगद्वारों के आश्रय से बहुत विस्तार के साथ की गई है। इसी दृष्टि से उस दूसरे खण्ड का नाम क्षुद्रकबन्ध या खुद्दाबंध पड़ा है । उसमें समस्त सूत्र संख्या १५७६ है, जब कि महाबन्ध का ग्रन्थ-प्रमाण ३०००० श्लोक है। इसीलिए इस छठे खण्ड का नाम महाबन्ध पड़ा है, जो अपेक्षाकृत है। __ इस महाबन्ध की कानडी लिपि में लिखी गई एक ही प्रति उपलब्ध हुई है, जिसके आधार से उसका प्रकाशन हुआ है । उसमें भी कुछ पत्र त्रुटित रहे हैं । प्रारम्भ का अंश कुछ त्रुटित हो जाने से उसकी प्रारम्भिक रचना किस प्रकार की रही है, यह ज्ञात नहीं हो सका। बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है । इसी चार प्रकार के बन्ध की वहाँ क्रमशः बहुत विस्तार से प्ररूपणा की गई है । मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय ! १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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