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अग्गबीया मूलबीया खंधबीया चेव पोरबीया य ।
बीयरुहा सम्मुच्छिम समासओ वणस्सई जीवा ॥१३०॥ इस प्रकार ये वनस्पतिभेद दोनों ग्रन्थों में प्रायः समान हैं।
(२) दशवकालिक में आगे इसी चौथे अध्ययन के अन्तर्गत 'चारित्र' अर्थाधिकार में छठे रात्रिभोजन-विरमण के साथ क्रम से पांच महाव्रतों के स्वरूप को प्रकट किया गया है।
तत्पश्चात् उसके 'यतना' नामक चौथे अर्थाधिकार में भिक्षु व भिक्षुणी के द्वारा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमत रूप नौ प्रकार से क्रमश: पृथिवीकायिकादि जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की प्रतिज्ञापूर्वक प्रतिक्रम व निन्दा-गर्हा आदि की भावना व्यक्त की गयी है।'
इस प्रसंग में वहां जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की प्रेरणा करते हुए इन जलकायिक जीवों का उल्लेख किया गया है
उदक, ओस, हिम, महिका, करक, हरतणु और शुद्ध उदक । धवला में इन जीवभेदों की निर्देशक एक गाथा इस प्रकार उद्धृत की गयी है
ओसा य हिमो धूमरि हरधणु सुद्धोदओ घणोदो य ।
एवे हु आउकाया जीवा जिणसासणु हिट्ठा ॥ दोनों ग्रन्थों में पर्याप्त शब्दसाम्य है।
(३) दशवकालिक में अग्निकायिक जीवों के प्रसंग में उनके ये नाम निर्दिष्ट किये गये हैं
अग्नि, इंगाल, मुर्मुर, अचि, ज्वाला, अलात, शुद्ध अग्नि और उल्का । धवला में उद्धृत गाथा द्वारा उक्त अग्निकायिक जीवों के ये भेद प्रकट किये गये हैंइंगाल, ज्वाला, अचि, मुर्मुर और शुद्ध अग्नि ।
इन जीवभेदों की प्ररूपक गाथाएं मूलाचार (५,१३-१५), जीवसमास (३१-३३), दि० प्रा० पंचसंग्रह (१,७८-८०) और आचारांगनियुक्ति (गा० १०८,११८ व १६६) में भी उपलब्ध होती हैं । इन भेदों का संग्राहक पूर्वार्ध सबका समान है, किन्तु उत्तरार्ध परिवर्तित है।
(४) इस 'षड्जीवनिकाय' अध्ययन के अन्तर्गत पाँचवें 'उपदेश' अर्थाधिकार में कहा गया है कि जो अयत्नपूर्वक-प्रमाद के वश होकर-चलता है, स्थित होता है, बैठता है, भोजन करता है और भाषण करता है, वह त्रस-स्थावर जीवों को पीड़ा पहुँचाता हुआ जिस पापकर्म को बांधता है उसका कटुक फल होता है। ___ इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि यदि ऐसा है तो फिर किस प्रकार से गमनादि में प्रवृत्ति करे, जिससे पापकर्म का बन्ध न हो। उत्तर में यह कहा गया है कि प्रयत्नपूर्वक (सावधान होकर) जिनाज्ञा के अनुसार गमनादि प्रवृत्ति करने पर पाप का बन्ध नहीं होता है। इस प्रसंग से सम्बद्ध वे पद्य इस प्रकार हैं
कह चरे कह चिट्ठ कह मासे कहं सए। कह भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ॥
१. सूत्र ३-१५, पृ० २८६-३१४ २. ओसा य हिमग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणुदगे य ।
ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥--मूला० ५-१३
अनिदिष्टनाम ग्रन्थ / ६२७
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