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________________ जयं चरे जयं चिट्ठ जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ ।।' धवला में जीवस्थान के अवतार की प्ररूपणा करते हुए प्रसंगप्राप्त अंगश्रुत का निरूपण किया गया है । उस प्रसंग में धवलाकार ने आचारांग के स्वरूप को प्रकट करते हुए वहाँ इन पद्यों को उद्धृत किया है और यह कहा है कि आचारांग अठारह हजार पदों के द्वारा इत्यादि (पद्यों में निर्दिष्ट) प्रकार के मुनियों के आचार का वर्णन करता है.... वट्टकेराचार्य-रचित मूलाचार के अन्तर्गत 'समयसार' नामक दशम अधिकार में मुनियों के आचरण को दिखलाते हुए आगमानुसार प्रवृत्ति करने वाले साधु की प्रशंसा और विपरीत प्रवृत्ति करने वाले की निन्दा की गयी है। वहीं प्रसंग को समाप्त करते हुए यह कहा गया है कि पृथिवीकायिक जीव पृथिवी के आश्रित रहते हैं, इसलिए पृथिवी के आरम्भ में निश्चित ही उनकी विराधना होती है। इस कारण जिन-मार्गानुगामियों को जीवन-पर्यन्त उस पृथिवी का आरम्भ करना योग्य नहीं है । जो जिनाज्ञा के अनुसार उन पृथिवीकायिक जीवों का श्रद्धान नहीं करता है वह जिन-वचन से दूरस्थ होता है, उसके उपस्थापना नहीं है। इसके विपरीत जो श्रद्धान करता है वह पुण्य-पाप के स्वरूप को समझता है, अत: उसके उपस्थापना है। उक्त प्रथिवीकायिक जीवों का श्रद्धान न करने वाला जिन-लिंग को धारण करता हआ भी दीर्घ होता है। यहाँ वृत्तिकार कहते हैं कि इस प्रकार के जीवों के संरक्षण के इच्छुक गणधर देव तीर्थकर । परमदेव से पूछते हैं। उनके प्रश्न का स्वरूप इस प्रकार है___उन जीवों की रक्षा में उद्यत साधु कैसे गमन करे, कैसे बैठे, कैसे शयन करे, कैसे भोजन करे और कैसे सम्भाषण करे, जिससे पाप का बन्ध न हो। इन प्रश्नों के उत्तर में वहां यह कहा गया है-.-- उन जीवों की रक्षा में उद्यत साधु प्रयत्नपूर्वक -ईर्यासमिति से-गमन करे, सावधानी से बैठे, सावधान रहकर शयन करे, प्रमाद को छोड़ भोजन करे और भाषासमिति के अनुसार सम्भाषण करे; इस प्रकार से उसके पाप का बन्ध होनेवाला नहीं है। इस प्रकार मूलाचारगत इन पद्यों में और पूर्वोक्त दशवैकालिक के उन पद्यों में 'कह' व 'कधं' जैसे भाषाभेद को छोड़कर अन्य कुछ शब्द व अर्थ की अपेक्षा विशेषता नहीं है, सर्वथा वे समान हैं। धवला में उद्धत वे पद्य भाषा की दृष्टि से मूलाचार के समान हैं। (५) दशवकालिक के अन्तर्गत नौवें 'विनयसमाधि' अध्ययन में गुरु के प्रति की जानेवाली अविनय से होनेवाली हानि और उसके प्रति की गयी विनय से होनेवाले लाभ का विचार करते १. सूत्र ७-८, पृ० ३१६ २. धवला पु० १, पृ० ६६ ३. मूलाचार १०,११६-२० ४. कध चरे कधं चिट्ठ कधमासे कधं सये । कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि ।। जदं चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये । जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एव पावं ण बज्झइ ॥—मूला० १०,१२१-२२ ६२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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