________________
उसकी अतिशय व्यवस्थित प्रामाणिक रचना को देखते हुए उसे धवला के बाद का नहीं कहा जा सकता है।
१४. दशवकालिक-इसके रचयिता शय्यम्भव सूरि हैं । साधारणतः ग्रन्थ-रचना और उसके अध्ययन-अध्यापन का काल रात्रि की व दिन की प्रथम और अन्तिम पौरुषी माना गया है । पर अपने पुत्र 'मनक' की आयु को अल्प (छह मास मात्र) जानकर उसके निमित्त यह ग्रन्थ विकाल (विगतपौरुषी) में रचा गया है, इसलिए इसका नाम 'दशवैकालिक' प्रसिद्ध हुआ है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने शय्यम्भव मूरि को चतुर्दशपूर्व वित् कहा है। उनके विषय में जो कथानक प्रचलित है, उसमें भी उनके चतुर्दशपूर्ववित् होने का उल्लेख है।
उसमें ये दस अध्ययन हैं-द्रुमपुष्पिका, श्रामण्यपूर्विका, क्षुल्लिकाचारकथा, षड्जीवकाय, पिण्डषणा, भट्टाचारकथा, वाक्य शुद्धि, आचारप्रणिधि, विनयसमाधि और सभिक्षु । अन्त में रतिवाक्यचूलिका और विविक्तचर्याचूलिका ये दो चूलिकाएँ हैं।
उन दस अध्ययनों में चौथा जो 'षड्जीव निकाय' है, उसमें ये अधिकार हैं-जीवाजीवाभिगम, चारित्रधर्म, उपदेश, यातना और धर्मफल ।
धवला में जो कुछ समानता इस दशवकालिक के साथ दृष्टिगोचर होती है, उसे यहाँ स्पष्ट किया जाता है
(१) उपर्युक्त 'षड्जीवनिकाय' अध्ययन के अन्तर्गत जीवाभिगम नामक अर्थाधिकार में पथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक इन छह काय के जीवों की प्ररूपणा की गयी है।'
प्रस्तुत षट्खण्डागम में इन छह काय वाले जीवों का उल्लेख किया गया है । विशेषता यहाँ यह रही है कि उक्त छह कायवाले जीवों के साथ प्रसंगवश अकायिक (कायातीत-सिद्ध) जीवों का भी उल्लेख किया गया है।
दशवकालिक के उस प्रसंगप्राप्त सूत्र में आगे अनेक वनस्पति-भेदों में कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है--अग्रबीज, मूलबीज, पोरबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह, संमूछिम और तृणलता।
षट्खण्डागम की धवला टीका में इन वनस्पति-भेदों की प्ररूपक एक गाथा इस प्रकार उद्धत रूप में उपलब्ध होती है
मलग्ग-पोरबीया कंदा तह खंधबीय-बीयरहा ।
सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥" इसके समकक्ष एक गाथा आचारांगनियुक्ति में इस प्रकार उपलब्ध होती है
१. छहि मासेहि अहि [ही]अं अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेणं।
छम्मासा परिआओ अह कालगओ समाहीए।-दशव०नि० ३७० २. दशवै० सूत्र १, पृ० २७४-७५ ३. ष०ख० सूत्र १,१,३६ (पु. १) ४. धवला पु० १, पृ० २७३ (यह गाथा मूलाचार (५-१६), दि०पंचसंग्रह (१-८१), जीवन
समास (३४) और गो०जीवकाण्ड (१८६) में उपलब्ध होती है।) ६२६ / पट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org