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मोह और क्षीणमोह के कहा गया है (गा० ६३)।
४. ध्यानफल -धवला में आगे इस धर्मध्यान में सम्भव पीत, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं का सद्भाव दिखाकर उसके फल के प्रसंग में कहा है कि उसका फल अक्षपकों में ; प्रचुर देवसुख की प्राप्ति और गुणश्रेणि के अनुसार होने वाली कर्मनिर्जरा है, परन्तु क्षपकों में उसका फल असंख्यात गुणश्रेणि से कर्मप्रदेशों की निर्जरा और पुण्य कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना है। इस प्रकार धर्मध्यान की प्ररूपणा समाप्त हुई है।
शुक्लध्यान-आगे शुक्लध्यान की प्ररूपणा में उसके पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती इन चार भेदों का निर्देश करते हुए प्रथमतः उनमें अन्य प्रासंगिक चचों के साथ पूर्व पहले के दो शुक्लध्यानों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है। ___इन दोनों शुक्लध्यानों के फल की प्ररूपणा में कहा गया है कि अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय कर्म की सर्वोपशामना में अवस्थित रहना पृथक्त्ववितर्कविचार शुक्लध्यान का फल है। परन्तु धर्मध्यान का फल मोह का सर्वोपशम है, क्योंकि सकषाय रूप से धर्मध्यान करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक संयत के अन्तिम समय में मोहनीय का सर्वोपशम पाया जाता है।
एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान का फल तीन घातिया कर्मों का निर्मूल विनाश करना है, जबकि धर्मध्यान का फल मोहनीय का विनाश करना है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है।
इस पर यहां यह शंका उठी है कि यदि मोहनीय का उपशम होना धर्मध्यान का फल है तो उसका क्षय उस धर्मध्यान का फल नहीं हो सकता, क्योंकि एक से दो कार्यों के उत्पन्न होने का विरोध है। इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि धर्मध्यान अनेक प्रकार का है, इसलिए उससे अनेक कार्यों के उत्पन्न होने में कुछ विरोध नहीं है।
धवला में एक अन्य शंका यह भी उठायी गयी है कि एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान के लिए 'अप्रतिपाती' विशेषण से क्यों नहीं विशेषित किया गया। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उपशान्तकषाय जीव के भव के क्षय से अथवा काल के क्षय से कषायों में पड़ने पर एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान का प्रतिपात पाया जाता है। इसलिए उसे 'अप्रतिपाती' विशेषण से विशिष्ट नहीं किया गया है।
या यह स्मरणीय है कि धवलाकार के मतानसार उपशान्तकषाय गणस्थान में प्रमखता से पृथक्त्ववितर्क-वीचार शुक्लध्यान रहता है, साथ ही वहाँ दूसरा एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान भी रहता है। इसी प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार शुक्लध्यान तो होता ही है, साथ ही वहां योगपरावर्तन की एक समय प्ररूपणा न बन सकने के कारण क्षीणकषाय काल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान भी सम्भव है।
इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के होने पर 'उवसंतो दु धत्तो" इस आगमवचन से विरोध होता है। इसके समाधान में कहा है कि उक्त आगमवचन में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान ही वहाँ होता है, ऐसा नियम नहीं
१. उवसंतो दु पुधत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कऽवीचारं ।।-मूला० ५-२०७
षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५१७
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