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________________ नहीं होता है उसका नाम ध्यान है । यह स्थिरता भी दोनों ध्यानों में समान है, क्योंकि इसके विना ध्यान नहीं बनता। इसका परिहार करते हुए कहा गया है कि यह ठीक है कि विषय की अभिन्नता और स्थिरता इन दोनों स्वरूपों की अपेक्षा उन दोनों ध्यानों में कुछ भेद नहीं है। किन्तु धर्मध्यान एक वस्तु में थोड़े ही समय अवस्थित रहता है, क्योंकि कषाय सहित परिणाम गर्भालय में स्थित दीपक के समान दीर्घ काल तक अवस्थित नहीं रहता। और वह धर्मभ्यान कषाय सहित जीवों के ही होता है, क्योंकि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सूक्ष्ममाम्प रायिक क्ष पक व उपशामकों में धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिन भगवान का उपदेश है । इसके विपरीत शुक्लध्यान एक वस्तु में धर्मध्यान के अवस्थान काल से संख्यातगुणे काल तक अवस्थित रहता है, क्योंकि वीतराग परिणाम मणिशिखा के समान बहुत काल तक चलायमान नहीं होता। इस प्रकार उपर्युक्त स्वरूपों की अपेक्षा समानता के रहने पर भी क्रम से सकषाय और अकषायरूप स्वामियों के भेद से तथा अल्पकाल और दीर्घकाल तक अवस्थित रहने के भेद से दोनों ध्यानों में भेद सिद्ध है। यद्यपि उपशान्तकषाय के पृथक्त्ववितर्कवीचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान अन्तर्मुहूर्त काल ही रहता है, दीर्घकाल तक नहीं रहता है; फिर भी वहाँ उसका विनाश वीतराग परिणाम के विनाश के कारण होता है, अतः वह दोषजनक नहीं है (पु० १३, पृ० ७०-७५)। ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि 'तत्त्वार्थसूत्र' में धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है, जब कि वहाँ अन्य तीन ध्यान के स्वामियों का उल्लेख (सूत्र ३४,३५,३७ व ३८) है। फिर भी उसकी वृत्ति 'सर्वार्थ सिद्धि' में 'आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम्' सूत्र (६-३६) की व्याख्या करते हुए अन्त में यह कहा गया है कि वह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के होता है। 'तत्त्वार्थभाष्य' सम्मत सूत्रपाठ के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में ये दो सूत्र उपलब्ध होते हैंआज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । उपशान्त-क्षीणकषाययोश्च । -६,३७-३८ तदनुसार उक्त धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के होता है। यह सूत्रपाठभेद सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष रहा है। इसलिए वहाँ 'धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के होता है' इस शंका का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर सम्यक्त्व के प्रभाव से जो असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के भी धर्म्यध्यान का सद्भाव स्वीकार किया गया है उससे उनके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे 'तत्त्वार्थवातिक' में उक्त सूत्र पाठभेद के अनुसार जो उसका सद्भाव उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय के स्वीकार किया गया है उसे असंगत ठहराते हुए कहा है कि ऐसा स्वीकार करने पर उक्त दोनों गुणस्थानों में शुक्लध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा।' 'ध्यानशतक' में धर्मध्यान का सद्भाव इसी सूत्रपाठभेद के अनुसार अप्रमत्तसंयत, उपशान्त १. धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्पेति चेन्न, पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसंगात् । उपशान्तकषाय-क्षीणकषाययो श्चेति, तन्न शुक्लाभाव प्रसंगात् । -त०व० ६, ३६, १४-१४ ५१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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