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________________ 'ध्यानशतक' को धवला में प्ररूपित ध्यान का प्रमुख आधार कहने का कारण यह है कि वहाँ ध्यान के वर्णन में ग्रन्थनामनिर्देश के बिना ध्यानशतक की लगभग ४७ गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं।' इस सबसे यही प्रतीत होता है कि धवलाकार ने मोक्ष को प्रमुख लक्ष्य बनाकर प्रस्तुत ध्यान की प्ररूपणा की है, इसलिए उन्होंने ध्यान के धर्म और शुक्ल इन दो ही भेदों का निर्देश किया है । आर्त और रोद्र का कहीं नामनिर्देश भी नहीं किया। __ हेमचन्द्र सूरि विरचित 'योगशास्त्र' (४-११५) में भी ध्यान के धर्म और शुक्ल ये ही भेद निर्दिष्ट हैं। धवला में धर्मध्यान के चतुर्थ भेदभूत संस्थानविचय के प्रसंग में जिन दस (४१-५०) गाथाओं को उद्धृत किया गया है उनमें ४८वी गाथा का पाठ अस्त-व्यस्त हो गया है। उसके स्थान में शुद्ध दो गाथाएं इस प्रकार होनी चाहिए अण्णाण-मारएरिय-संजोग-विजोग-वीइसंताणं । संसार-सागरमणोरपारमसुई विचितेज्जा ॥४८॥ तस्स य संतरणसहं सम्मसण-सुबंधणमणग्छ । णाणमयकण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥४६॥ -ध्यानशतक, ५७-५८ 'ध्यानशतक' में आगे ५८वीं गाथा में प्रयुक्त 'चारित्रमय महापोत' से सम्बद्ध ये दो गाथाएं और भी उपलब्ध होती हैं, जो धवला में नहीं मिलती। संवरकयनिच्छिद्दतव-पवणाइद्धजइणतरगं । बेरग्ग-मग्गपडियं विसोत्तिया-वीइनिक्खोभं ॥५६।। आरोढुं मुणि-वणिया माहग्घसोलंग-रयणपडिपुन्न । जह तं निव्वाण-पुरं सिग्घमविग्घेण पावंति ॥६०।। धवला में उद्धृत एक गाथा यह भी है कि बहुसो सव्वं चिय जीवादिपयवित्थरोवेयं । सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसम्भावं ॥२ -पु० १३, पृ०७३ इसमें प्रयुक्त 'समयसब्भाव' को कर धवला में यह शंका की गई है कि यदि समस्त सद्भाव-आगमोक्त समस्त पदार्थ-ध्यान के ही विषयभूत हैं तो फिर शुक्लध्यान का कुछ विषय ही नहीं रह जाता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विषय की अपेक्षा इन दोनों ध्यानों में कुछ भेद नहीं है। ___ इस पर पुनः यह शंका की गई है कि यदि ऐसा है तो उन दोनों ध्यानों में अभेद का प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह कि डाँस-मच्छर व सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाने पर तथा शीत-उष्ण आदि अन्य अनेक बाधाओं के रहते हुए भी जिस अवस्था में ध्याता ध्येय से विचलित १. 'ध्यानशतक' (वीरसेवा-मन्दिर, दिल्ली) की प्रस्तावना में पृ० ५६-६२ पर 'ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण' शीर्षक । २. यह गाथा 'ध्यानशतक' में गाथांक ६२ के रूप में उपलब्ध है। षट्खण्डागम पर टीकाएं | ५१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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