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निरोध होता है, अतः रागादि के निरोध में निमित्तभूत होने से उनके ध्येय होने में कुछ भी विरोध नहीं है। ___- आगे इसी प्रसंग में उपशमश्रेणि व क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने के विधान, तेईस वर्गणाओं, पांच परिवर्तनों और प्रकृति-स्थिति आदिरूप चार प्रकार के बन्ध को भी ध्यान के योग्य माना गया है।
३. ध्यान--तत्पश्चात् अवसरप्राप्त ध्यान की प्ररूपणा में सर्वप्रथम उसके भेदों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने उसे धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का है-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । इन चारों ही धर्मध्यान के भेदों के स्वरूप आदि का धवला में विस्तार से निरूपण है।
यहाँ यह विचारणीय है कि धवलाकार ने यहां ध्यान के उपर्युक्त दो ही भेदों का निर्देश किया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र (६-२८) व मूलाचार (५-१९७) आदि अनेक ग्रन्थों में उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं.-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । यदि यह समझा जाय कि तप:कर्म का प्रसंग होने से सम्भवत: धवलाकार ने ध्यान के रूप में उन दो ही भेदों का उल्लेख करना उचित समझा हो, तो ऐसा भी प्रतीत नहीं होता, क्योंकि 'तत्त्वार्थसूत्र' और 'मूलाचार' में भी अभ्यन्तर तप के प्रसंग में ध्यान के इन चार भेदों का भी विधिवत् उल्लेख किया गया है।
मूलाचार' में विशेषता यह रही है कि वहाँ सामान्य रूप में ध्यान के इन चार भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। किन्तु वहां यह कहा गया है कि आर्त और रोद्र ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं तथा धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं (५-१६७)। आगे वहां और भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अतिशय भयावह व सुगति के बाधक इन आर्त-रोद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान के विषय में बुद्धि को लगाना चाहिए (५-२००)। _ 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी लगभग यही अभिप्राय प्रकट किया गया है। वहाँ सामान्य से आर्तरौद्र आदि रूप ध्यान के उन चार भेदों का निर्देश करते हुए 'परे मोक्षहेत' (६-२६) यह कहकर पूर्व के आर्त और रौद्र ध्यानों को संसारपरिभ्रमण का कारण कहा गया है।'
'तत्त्वार्थसूत्र' की व्याख्यास्वरूप 'सर्वार्थसिद्धि' में भी कहा गया है कि चार प्रकार का यह ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो भेदों को प्राप्त है। ____ 'ध्यानशतक' में भी, जिसे प्रमुख आधार बनाकर धवलाकार ने प्रस्तुत ध्यान की प्ररूपणा विस्तार से की है, संख्यानिर्देश के बिना ध्यान के उन्हीं आर्त आदि चार भेदों का उल्लेख किया गया है। पर वहाँ भी 'तत्त्वार्थसूत्र' के समान यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अन्त के दो (धर्म और शुक्ल) ध्यान निर्वाण के साधन हैं जबकि आर्त और रोद ये दो ध्यान संसार के कारण हैं।
१. धवला पु० १३, पृ० ६९-७० २. वही, पृ० ७०-७७ ३. परे मोक्षहेतू इति वचनात् पूर्वे आर्त-रोद्रे संसारहेतू इत्युक्तं भवति । कुतः तृतीयस्य
साध्यस्याभावात् । --सर्वार्थसिद्धि ६-२६
५१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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