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सम्यम्दृष्टि होना चाहिए।
ग्रन्थत्यागी--ध्याता को बाह्य और अन्तरङ्ग परिग्रह का त्यागी होना चाहिए क्योंकि क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, शिष्य, कुल, गण, संघ इत्यादि बाह्य परिग्रह के आश्रय से मिथ्यात्व व क्रोध-मानादिरूप अन्तरंग परिग्रह उत्पन्न होता है; जिसके वशीभूत होने पर ध्यान नहीं बनता है।
विविक्त-प्रासुकदेशस्थ-ध्यान के लिए जीव-जन्तुओं से रहित एकान्त स्थान होना चाहिए । ऐसे स्थान पर्वत, गुफा, श्मशान उद्यान आदि हो सकते हैं। जहाँ स्त्रियों, पशुओं एवं दुष्ट जनों का आना-जाना होता है उस स्थान में चित्त की निराकुलता नहीं रह सकती। यही कारण है जो ध्यान के लिए योग्य निर्जन्तुक एकान्त स्थान का उपदेश दिया गया है।
सुखासनस्थ-ध्यान के समय कष्टप्रद आसन पर स्थित होने से अंगों को पीड़ा उत्पन्न हो सकती है। इससे चित्त निराकुल नहीं रह सकता । अतएव जिस आसन पर बैठकर सुखपूर्वक ध्यान किया जा सके ऐसे सुखासन को ध्यान के योग्य आसन कहा गया है।
अनियतकाल-ध्यान के लिए कोई समय नियत नहीं है, किसी भी समय वह किया जा सकता है, क्योंकि शुभ परिणाम सभी समयों में सम्भव हैं।
सालम्बन-जिस प्रकार सीढ़ी आदि के बिना प्रासाद आदि के ऊपर चढ़ा नहीं जा सकता है उसी प्रकार आलम्बन के बिना ध्यान पर भी आरुढ़ नहीं हुआ जा सकता है। इसके विपरीत, मनुष्य जिस प्रकार लाठी अथवा रस्सी आदि का आलम्बन लेकर दुर्गम स्थान पर पहुँच जाता है उसी प्रकार ध्याता सूत्र व वाचना-पृच्छता आदि का आलम्बन लेकर ध्यान पर स्थिरतापूर्वक आरूढ़ हो जाता है।
रत्नत्रयभावितात्मा-ध्यान के योग्य वह ध्याता होता है जिसने ध्यान के पूर्व सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और वैराग्य आदि विषयक भावनाओं के द्वारा उसका अभ्यास कर लिया हो । जो शंकादि दोषों से रहित होकर प्रशमादि गुणों को प्राप्त कर चुका है वह दर्शनविशुद्धि से विशद्ध हो जाने के कारण ध्यान के विषय मे मढ़ता को प्राप्त नही होता है। निरन्तर ज्ञान के अभ्यास से मन की प्रवृत्ति अशुभ व्यापार में नहीं होती है, इसलिए वह निश्चलतापूर्वक ध्यान में निमग्न हो सकता है, चारित्र की भावना से नवीन कर्मों का आस्रव रुककर पुरातन कर्म की निर्जरा होती है। वैराग्यभावना से जगत् के स्वभाव को समझ लेने के कारण ध्याता ध्यान में स्थिर रहता है । इस कारण ध्यान के पूर्व रत्नत्रय की भावना व अनित्यादि बारह भावनाओं के द्वारा मन को स्थिर करना चाहिए।
ध्येय में स्थिरचित्त—पाँचों इन्द्रियों के विषयों की ओर से मन को हटाकर ध्येय के विषय में उसे स्थिर करना चाहिए, क्योंकि विषयों की ओर दृष्टि के रहने से मन की स्थिरता सम्भव नहीं है (धवला पु० १३, पृ० ६४-६६)।
२. ध्येय-इस प्रकार ध्याता की प्ररूपणा करके आगे क्रमप्राप्त ध्येय का निरूपण करते हुए धवला में उस प्रसंग में अनेक विशेषणों से विशिष्ट वीतराग जिन को, सिद्धों को, जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थों को तथा बारह अनुप्रेक्षाओं आदि को ध्येय-ध्यान में चिन्तन के योग्य-कहा गया है। __यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि निर्गुण नौ पदार्थ कर्मक्षय के कारण कैसे हो सकते हैं । इसके उत्तर में वहाँ यह कहा गया है कि उनका चिन्तन करने से राग-द्वेष आदि का
षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५१३
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