SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. ध्याता - धवला में आगे ध्यान की प्ररूपणा क्रम से इन चार अधिकारों के आश्रय से की गई है - ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । यहाँ ध्याता उसे कहा गया है जो उत्तम संहनन से सहित, सामान्य से बलवान्, शूर-वीर और चौदह अथवा दस- नौ पूर्वो का धारक होता है । उसे इतने पूर्वों का धारक क्यों होना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञान के विना नौ पदार्थों का बोध न हो सकने से ध्यान घटित नहीं होता है, इसलिए उसे इतने पूर्वो का धारक होना चाहिए । इस प्रसंग में यहाँ यह शंका उठी है कि यदि नौ पदार्थों विषयक ज्ञान से ही ध्यान सम्भव है तो चौदह, दस अथवा नौ पूर्वो के धारकों को छोड़कर दूसरों के वह ध्यान क्यों नहीं हो सकता है, क्योंकि चौदह दस अथवा नौ पूर्वों के विना थोड़े से भी ग्रन्थ से नौ पदार्थों विषयक बोध पाया जाता है । इसके समाधान में धवला में कहा गया है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि बोजबुद्धि ऋद्धि के धारकों को छोड़कर, अन्य जनों के थोड़े से ग्रन्थ से समस्त रूप में उन नौ पदार्थों के जान लेने के लिए और कोई उपाय नहीं है । इसे आगे और भी स्पष्ट किया है । तदनुसार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है - समस्त विश्व इन्हीं नौ पदार्थों में समाविष्ट है, इसलिए अल्प श्रुतज्ञान के बल पर समस्त रूप में उन नौ पदार्थों का जान लेना शक्य नहीं है। दूसरे, यहाँ द्रव्यश्रुत का अधिकार नहीं है, क्योंकि पुद्गल के विकार रूप जड़ द्रव्यश्रुत को श्रुत होने का विरोध है । वह केवलज्ञान का (भावश्रुत का ) साधन है । इसके अतिरिक्त यदि अल्प श्रुत से ध्यान को स्वीकार किया जाता है तो शिवभूति आदि, जो बीजबुद्धि के धारक रहे हैं, उनके उस ध्यान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होने से मोक्ष के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । पर वैसा नहीं है, क्योंकि द्रव्यश्रुत के अल्प होने पर भी बीजबुद्धि ऋद्धि के बल से भाव रूप में उनको समस्त नौ पदार्थों का ज्ञान प्राप्त था । इसीलिए उन्हें शुक्ल ध्यान के आश्रय से मोक्ष प्राप्त हुआ है। शिवभूति के द्रव्यश्रुत अल्प रहा है, यह भावप्राभृत की इस गाथा से स्पष्ट हैतुस - मासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ | - गा० ५३ आगे धवलाकार कहते हैं कि यदि अल्प ज्ञान से ध्यान होता है तो क्षपकश्रेणि और उपशम श्रेणि के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है । परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वी के धारकों को धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों का स्वामित्व प्राप्त है, क्योंकि इसमें कुछ विरोध नहीं है। इसलिए उनका ही यहाँ निर्देश किया गया है । आगे धवला में ध्याता की विशेषता को प्रकट करनेवाले कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं । यथा सम्यग्दृष्टि – नौ पदार्थोविषयक रुचि, प्रत्यय अथवा श्रद्धा के बिना ध्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के कारणभूत संवेग और निर्वेद मिथ्यादृष्टि सम्भव नहीं है इसलिए उसे १. यह स्मरणीय है कि धवला में धर्मध्यान का सद्भाव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक व उपशमक तक निर्दिष्ट किया गया है । यथा - असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजद-पमत्तसंजद- अप्पमत्तसजद- अपुव्वसंजद-अणियट्टिसंजद - सुहुमसांपराइयखवगोवसामसु धम्म (?) स्स पवृत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो । – पु० १३, पृ०७४ ५१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy