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इस प्रसंग में एक यह भी शंका उठायी गयी है कि जिस प्रकार कषाय अथवा अज्ञान आदि में हानि की तरतमता देखी जाती है उसी प्रकार आवरण की भी तरतमता देखी जाती है, अतः वह आवरण किसी जीव के ज्ञान आदि को पूर्णतया आवृत कर सकता है, जैसे कि राहु द्वारा पूर्णतया चन्द्रमण्डल को आवृत कर लेना । उसके उत्तर में धवलाकार ने यही कहा है कि ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस परिस्थिति में यावद्रव्यभावी जीव के ज्ञान-दर्शनादि गुणों का अभाव होने पर जीवद्रव्य के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
उपर्युक्त शंका की असंगति प्रकट कर निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने कहा है कि इस प्रकार से जीव केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनी, मोहनीय के क्षय से वीतराग और अन्तराय के क्षय से अनन्त बलवाला सिद्ध होता है (पू. ६, पृ० ११४-१८)।
आगे 'उपर्युक्त द्रव्य, क्षेत्र और भाव की प्ररूपणाओं के संस्कारार्थ काल की प्ररूपणा की की जाती है। इस सूचना के साथ धवला में पहले यह निर्देश किया है कि इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणीकाल के चौथे भेदभूत दुःषमासुषमाकाल में नौ दिन और छह मास से अधिक तेतीस वर्ष के शेष रह जाने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई है। धवलाकार ने इसे और स्पष्ट किया। तदनसार चौथे काल में पचहत्तर वर्ष आठ मास और पन्द्रह दिन के शेष रह जाने पर आषाढ शक्ला षष्ठी के दिन भगवान् महावीर पुष्पोत्तरं विमान से बहत्तर वर्ष की आय लेकर गर्भ में अवतीर्ण हुए।' इसमें उनका कुमारकाल तीस वर्ष, छद्मस्थकाल बारह वर्ष और केवलीकाल तीस वर्ष रहा है । इन तीनों कालों के योगरूप बहत्तर वर्ष को चतुर्थकाल में शेष रहे उपक्त पचत्त र वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन में से कम कर देने पर तीन वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन शेष रहते हैं । यह भगवान् महावीर के मुक्त हो जाने पर चतुर्थ काल में शेष रहे काल का प्रमाण है। इसमें छ्यासठ दिन कम केवलिकाल मिला देने पर नौ दिन और छह मास अधिक तेतीस वर्ष चतुर्थ काल में शेष रहते हैं। चतुर्थ काल में इतने काल के शेष रह जाने पर महावीर जिनेन्द्र के द्वारा तीर्थ की उत्पत्ति हुई। इसे एक दृष्टि में इस प्रकार लिया जा सकता है
धियां तरतमार्थवद्गतिसमन्वयान्वीक्षणात् भवेत् खपरिमाणवत् क्वचिदिह प्रतिष्ठा-परा। प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निर्मूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः ।।
-पात्रकेसरिस्तोत्र १८ १. भगवान् महावीर के गर्भावतरण का यही काल आचारांग (द्वि० श्रुतस्कन्ध) में भी इसी
प्रकार निर्दिष्ट किया गया है । विशेष इतना है कि वहाँ आयुप्रमाण का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है यथा
"xxxदूसमसुसमाए समाए बहु विइक्कंताए पन्नहत्तरीए वासेहि मासेहि य अद्धनवमेहि सेसेहि जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्टमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठी पक्खेण हत्थुत्तराहि नक्खत्तेणं.. कुच्छिसि गब्भं वक्कते।"
-आचा० द्वि० श्रुत० चूलिका ३ (भावना) पृ० ८७७-७८ ४१२ / बटाण्डागम-परिशीलन
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