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समुद्र के परभाग में राजु के अर्धच्छेदों के अस्तित्व का निर्देश किया है । इस पर वहां यह पूछा गया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के परभाग में राजु के अर्धच्छेद हैं, यह कहाँ से जाना जाता है। उत्तर में धवलाकार ने पूर्व के समान वही कहा है कि वह दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्ग प्रमाण ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक सूत्र (१,२,५५) से जाना जाता है।
इस पर शंकाकार ने आपत्ति प्रकट की है कि यह व्याख्यान परिकर्म के विरुद्ध है, क्योंकि वहाँ यह कहा गया है कि जितनी द्वीप-सागरों की संख्या है तथा एक अधिक जितने जम्बद्वीप के अधंच्छेद हैं उतने राजु के अर्धच्छेद होते हैं।'
इस आपत्ति का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है-हाँ, वह व्याख्यान परिकर्म के विरुद्ध है, किन्तु सूत्र (१,२,५५) के विरुद्ध नहीं है, इसलिए इस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि परिकर्म के उस व्याख्यान को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है। और सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान होता नहीं है, अन्यथा अव्यवस्था का प्रसंग प्राप्त होता है।
अन्त में धवलाकार आ० वीरसेन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपों से अधिक जम्बद्वीप के अर्धच्छेदों से सहित द्वीप-सागरों के रूपों मात्र राज के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश को परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, वह केवल तिलोयपण्णतिसुत्त का अनुसरण करती है। उसकी प्ररूपणा हमने ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र का आश्रय लेनेवाली युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ को सिद्ध करने के लिए की है । इसके प्रसंग में उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिए हैं तथा एकान्तरूप कदाग्रह का निषेध भी किया है
(क) जिस प्रकार हमने प्रतिनियत सूत्र के बल पर सासादनगुणस्थानवर्ती जीवों से सम्बद्ध असंख्यात आवली प्रमाण अवहारकाल का उपदेश किया है।-देखिए पु० ३, ५०६६
(ख) तथा जिस प्रकार प्रतिनियत के बल पर आयातचतुरस्र लोक के आकार का उपदेश किया है। -देखिए पु० ४, पृ० ११-२२ ।
(५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की संख्या से सम्बद्ध सूत्र (१२०) के व्याख्या-विषयक दो भिन्न मतों को राग-द्वेषादि से रहित पुरुषों की परम्परा से आने के कारण प्रमाणभूत मानकर भी धवलाकार ने अपने व्यक्तिगत अभिप्राय को इस प्रकार व्यक्त किया है
"अम्हाणं पुण एसो अहिप्पाओ जहा पढमपरूविदअत्थो चेव भद्दओ, ण बिदिओ त्ति । कुदो ? ..!"--पु० १३, पृ० ३७७-८२ प्रसंगानुसार एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न अभिप्राय
धवलाकार के समक्ष कुछ ऐसे भी प्रसंग उपस्थित हुए हैं, जहां उन्होंने किसी एक ही
१. जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च रूवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुच्छेद
णाणि । -परिकर्म (पु० ४) २. देखिए धवला पु० ४, पृ० १५०-५८; यह समस्त सन्दर्भ (पृ० १५६-५६) कुछ ही प्रासंगिक
शब्दपरिवर्तन के साथ जैसा-का-तैसा तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होता है, जिसे वहाँ प्रक्षिप्त ही समझना चाहिए।-देखिए ति०५०, भाग २, पृ० ७६४-६६ ।
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति / ७३१
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