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________________ विशेषता यह रही है कि धवला में मूल में नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायायिक इन दो भेदों का निर्देश किया गया है । इनमें द्रव्याथिक को नैगम, संग्रह और व्यवहार के भेद से तीन प्रकार का तथा पर्यायार्थिक को अर्थनय और व्यंजननय के भेद से दो प्रकार का कहा है। इनमें ऋजुसूत्र को अर्थनय तथा शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत को व्यंजन नय कहा गया है। इस प्रकार धवला में जहाँ उपर्युक्त नगमादि सात नयों का उल्लेख नय के अवान्तर भेदों में हुआ है वहाँ अनुयोगद्वार में उन्हीं सात नयों का उल्लेख मूलनय के रूप में हुआ है । शब्द, समभिरूढ और एवम्भूत ये तीन नय अनुयोगद्वार के कर्ता को भी शब्दनय के रूप में अभिप्रेत रहे हैं । यही कारण है कि उन्होंने अनेक प्रसंगों पर 'तिन्ह सद्दणयाणं' या 'तिष्णि सद्दणया' ऐसा संकेत किया है । जैसे-सूत्र १५ (५), ५७ (५), ४७४, ४७५, ४८३ (५), ४६१ व ५२५ (३) । जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, यहाँ यह स्मरणीय है कि मूल षट्खण्डागम में सर्वत्र नैगम, व्यवहार, संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय ही व्यवहृत हुए हैं तथा उनकी प्ररूपणा का क्रम भी यही रहा है । ११. 'अनुगम' यह विवक्षित ग्रन्थविषयक अवतार का तीसरा या चौथा भेद रहा है ! जीवस्थान के अवतार के प्रसंग में उसके चौथे भेदभूत अनुगम के अन्तर्गत 'एत्तो इमेसि चोद्दसह इस सूत्र (१,१, ४) के प्रारम्भ के पूर्व उसकी उत्थानिका के रूप में 'अणुगमं वत्त इस्सामी' इतना मात्र धवला में कहा गया है, वहाँ उसका और कुछ विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया गया है ।" किन्तु आगे जाकर सभी ग्रन्थों के अवतार को उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का निर्दिष्ट किया है। आगे उसे स्पष्ट करते हुए धवलामें कहा गया है कि जिसमें अथवा जिसके द्वारा वक्तव्य की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम अनुगम है । इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि 'अधिकार' संज्ञावाले अनुयोगद्वारों के जो अधिकार होते हैं उनको अनुगम कहा जाता है। उदाहरण के रूप में वहाँ कहा गया है कि जैसे वेदना अनुयोगद्वार में पदमीमांसा आदि अधिकार । आगे कहा गया है कि यह अनुगम अनेक प्रकार का है, क्योंकि इसकी संख्या का कुछ नियम नहीं है । इसी प्रसंग में वहाँ प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है – 'अथवा अनुगम्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेत्यनुगमः । किम् ? प्रमाणम् ।' इस निरुक्ति के अनुसार अनुगम को प्रमाण बतलाते हुए उसकी वहाँ प्रत्यक्षपरोक्ष आदि भेद-प्रभेदों में विस्तार से प्ररूपणा है । * इसी सिलसिले में आगे प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में प्रकारान्तर से 'अथवा अन् परिच्छिद्यन्ते इति अनुगमाः इस निरुक्ति के अनुसार छह द्रव्यों को अनुगम कहा गया है । १. धवला पु० १, पृ० ६१ २. धवला पु० ६, पृ० १३४ ३. इन अधिकारों के लिए ये सूत्र द्रष्टव्य हैं – ४,२, ४, १ (पु० १०) तथा सूत्र ४, २, ५, १-२ और ४, २, ६, १-२ ( पु० ११) । ४. धवला पु० ६, पृ० १४१-४२ व आगे प्रमाणप्ररूपणा के लिए पृ० १४२-६२ द्रष्टव्य है । ५. धवला पु० ६, पृ० १६२ २७४ / षट्खण्डागम-परिशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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