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________________ (६) यहीं पर आगे धवला में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट क्षेत्र वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में एक शंका यह की गयी है कि अपने उत्पत्ति स्थान को न पाकर मारणान्तिकसमुद्घातगत जीव लौटकर मूल शरीर में प्रविष्ट होते हैं, यह कैसे जाना जाता है । इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि वह पवाइज्जंत उपदेश से जाना जाता है ।" (१०) कृति - वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारों में दसवाँ उदयानुयोगद्वार है। वहीं प्रसंगप्राप्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए धवला में कहा गया है कि पवाइज्जत उपवेश के अनुसार हास्य व रति प्रकृतियों के वेदकों से सातावेदनीय के वेदक संख्यात जीवमात्र से विशेष अधिक हैं । अन्य उपदेश के अनुसार सात वेदकों से हास्य- रति के वेदक असंख्यातवें भागमात्र से अधिक हैं । आगे यहीं पर अरति शोकवेदकों को स्तोक बतलाकर उनसे असातवेदकों को पवाइज्जंत उपदेश के अनुसार संख्यात जीवमात्र से और अन्य उपदेश के अनुसार उन्हें असंख्यातवें भागमात्र से विशेष अधिक कहा गया है। (११) इसी उदयानुयोगद्वार में अन्तर प्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने कहा कि पवाइज्जत उपदेश के अनुसार हम एक जीव की अपेक्षा अन्तर को कहते हैं। तदनुसार उन्होंने आगे ज्ञानावरणादि के भुजाकार वेदकों व अल्पतरवेदकों आदि के अन्तर का विचार किया है । 3 (१२) यहीं पर अल्पबहुत्व के प्रसंग में धवलाकार ने प्रथमतः मतिज्ञानावरणादिकों के अवस्थित वेदक आदि के अल्पबहुत्व को दिखलाकर तत्पश्चात्, स्थितियों के बन्ध, अपकर्षण और उत्कर्षण से चूँकि प्रदेशोदय की वृद्धि व हानि होती है इस हेतु, प्रदेशोदयभुजाकार के विषय में अन्य प्रकार का अल्पबहुत्व होता है; यह कहते हुए उन्होंने आगे उसे स्पष्ट किया है व अन्त में यह कह दिया कि यह हेतुसापेक्ष अल्पबहुत्व प्रवाहप्राप्त नहीं है - वह अप्पवाइज्जत है अर्थात् आचार्य परम्परागत नहीं है । (१३) उन्हीं चौबीस अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसके प्रारम्भ में धवलाकार ने कहा है कि अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में नागहस्ति भट्टारक सत्कर्म का मार्गण करते हैं । यही उपदेश प्रवाहप्राप्त है। 2 स्वतन्त्र अभिप्राय जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, धबलाकार आ० वीरसेन ने विवक्षित विषय के स्पष्टीकरण में सर्वप्रथम सूत्र को महत्त्व दिया है । पर जहाँ उन्हें सूत्र उपलब्ध नहीं हुआ वहाँ उन्होंने प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण आचार्य परम्परागत उपदेश और गुरूपदेश के बल पर भी किया है । किन्तु जहाँ उन्हें ये दोनों भी उपलब्ध नहीं हुए वहीं, उन्होंने आगमानुसारिणी युक्ति के बल पर अपने स्वतन्त्र मत को प्रकट किया है । जैसे— १. धवला, पु० ११, पृ० २५ २. घवला, पु० १५, पृ० २८५-८६ ३. वही, पृ० ३२६ ४. धवला, पु० १५, पृ० ३३२ ५. धवला, पु० १६, पृ० ५२२ Jain Education International वीरसेनाचार्य की व्याख्यान पद्धति / ७२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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