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________________ हुआ । 'थोस्सामि' दण्डक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है यह तीसरा सिर हुआ । तथा उस 'थोस्सामि' दण्डक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है यह चौथा सिर हुआ । इस प्रकार एक क्रियाकर्म 'चतुः शिर' होता है । प्रकारान्तर से धवलाकार ने इस चतुः शिर का अन्य अभिप्राय प्रकट करते हुए यह कहा है कि अथवा सब ही क्रियाकर्म अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार की प्रधानता से जो किया जाता है उसे चतुः शिर का लक्षण समझना चाहिए, क्योंकि उन चार को प्रधानभूत करके ही सारी क्रियाकर्म की प्रवृत्ति देखी जाती है । (६) सामायिक और थोस्सामि दण्डकों के आदि व अन्त में जो मन, वचन व काय की विशुद्धि का बारह बार परावर्तन किया जाता है, इसका नाम द्वादशावर्त है । इस प्रकार एक क्रियाकर्म को द्वादशावर्त स्वरूप कहा गया है । " भावकर्म -- यह पूर्वोक्त कर्म के दस भेदों में अन्तिम है । जो कर्मप्राभृत का ज्ञाता होता हुआ वर्तमान में उसमें उपयुक्त भी होता है उसे भावकर्म कहा जाता है (२९-३० ) । उपर्युक्त १० कर्मों में यहाँ समवदान कर्म को प्रकृत कहा गया है, क्योंकि कर्मानुयोगद्वार में उसी की विस्तार से प्ररूपणा की गई है (३१) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो यहाँ समवदान कर्म को प्रकृत कहा गया है वह संग्रह नय की अपेक्षा कहा गया है । किन्तु मूलतंत्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म इन छह कर्मों की प्रधानता रही है, क्योंकि वहाँ इनकी विस्तार से प्ररूपणा की गई हैं । इस सूचना के साथ धवलाकार ने यहाँ उन छह कर्मों की सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है । ३. प्रकृति- यहाँ 'प्रकृति' की प्रमुखता से ( प्रकृतिनिक्षेप व प्रकृतिनयविभाषणता आदि ) उन्हीं सोलह अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है, जिनका उल्लेख स्पर्श की प्रमुखता से 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में और कर्म की प्रमुखता से 'कर्म' अनुयोगद्वार में किया जा चुका है (१-२) । प्रकृतिनिक्षेप उन १६ अनुयोगद्वारों में यह प्रथम है । उसमें इसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गए हैं-नाम प्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ( ३-४ ) | प्रकृतिनयविभाषणता -- स्पर्श व कर्म अनुयोगद्वार के समान यहाँ भी अवसर प्राप्त उन नामप्रकृति आदि चार निक्षेपों की प्ररूपणा न करके उसके पूर्व प्रकृतिनयविभाषणता के अनुसार कौन नय किन प्रकृतियों को विषय करता है, इसका विचार किया गया है । यथानैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय उन नामादिरूप चारों प्रकृतियों को विषय करते हैं । ऋजुसूत्र नय स्थापनाप्रकृति को विषय नहीं करता है । शब्द नय नामप्रकृति और भावप्रकृति को विषय करता है ( ५-८ ) । आगे पूर्वनिर्दिष्ट चार प्रकार के प्रकृतिनिक्षेप की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः नाम प्रकृति के स्वरूप के विषय में कहा गया है कि एक जीव व एक अजीव आदि आठ में से जिसका 'प्रकृति' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामप्रकृति कहते हैं ( ६ ) । काष्ठ व चित्रकर्म आदि कर्मविशेषों में तथा अक्ष व वराटक आदि और भी जो इस प्रकार १. पु० १३, पृ० ६०-१६६ Jain Education International मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १०६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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