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________________ गया है। समवदानकर्म-आठ प्रकार के, सात प्रकार के और छह प्रकार के कर्मों का जो भेद रूप से ग्रहण प्रवृत्त होता है उसका नाम समवदानकर्म है। अभिप्राय यह है कि अकर्मरूप से स्थित कार्मण वर्गणा के स्कन्ध मिथ्यात्व व असंयम आदि कारणों के वश परिणामान्तर से अन्तरित न होकर जो अनन्तर समय में ही आठ, सात अथवा छह कर्मस्वरूप से परिणत होकर ग्रहण करने में आते हैं, उसे समवदानताकर्म कहा जाता है' (१६-२०)। ____ अधःकर्म-उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ कार्य से जो औदारिक शरीर उत्पन्न होता है उसे अधःकर्म कहते हैं । जीव का उपद्रव करने का नाम उपद्रावण, अंगों के छेद आदि करने का नाम विद्रावण, सन्ताप उत्पन्न करने का परितापन और प्राणी के प्राणों का वियोग करने का नाम आरम्भ है। इन कार्यों से जो औदारिक शरीर उत्पन्न होता है उसे अधःकर्म जानना चाहिए । अभिप्राय यह है कि जिस शरीर में स्थित प्राणियों के प्रति दूसरों के निमित्त से उपद्रव आदि होते हैं उसे अधःकर्म कहा जाता है (२१-२२)। ईर्यापथकर्म-ईर्या का अर्थ योग है, केवल योग के निमित्त से जो कर्म बँधता है उसका नाम ईर्यापथ कर्म है । वह ईर्यापथ कर्म छद्मस्थ वीतराग–उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय संयतों के तथा सयोगि केवलियों के होता है (२३-२४)। तपःकर्म-अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य और प्रायश्चित्त आदि छह प्रकार के अभ्यन्तर, इस बारह प्रकार के तप का नाम तपःकर्म है (२५-२६)। क्रियाकर्म-आत्माधीन (स्वाधीन) होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार नमस्कार आदि करना, तीन अवनमन करना, सिर झुकाकर चार बार नमस्कार करना और बारह आवर्त करना; इस सबका नाम क्रियाकर्म है। इसे ही कृतिकर्म व वन्दना कहा जाता है (२७-२८)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने इस क्रियाकर्म के छह भेदों का निर्देश किया हैआत्माधीन, प्रदक्षिणा, त्रिःकृत्वा (तीन बार करना), अवनमनत्रय, चतुःशिर और द्वादश आवर्त । (१) क्रियाकर्म करते हुए उसे जो अपने अधीन रहकर-पराधीन न होकर-किया जाता है, उसका नाम आत्माधीन है । (२) वन्दना के समय जो गुरु, जिन और जिनालय इनकी प्रदक्षिणा करते हुए नमस्कार किया जाता है उसे प्रदक्षिणा कहते हैं । (३) प्रदक्षिणा और नमस्कारादि क्रियाओं के तीन बार करने को 'त्रि:कृत्वा' कहा जाता है । अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु और ऋषि की जो तीन बार वन्दना की जाती है उसे त्रिःकृत्वा समझना चाहिए। (४) अवनमन का अर्थ भूमि पर बैठना है जो तीन बार होता है-निर्मलचित्त होकर पादप्रक्षालनपूर्वक जिनेन्द्र का दर्शन करते हुए जिन-के आगे बैठना, यह एक अवनमन है । फिर उठकर जिनेन्द्र आदि की विनती, विज्ञप्ति या प्रार्थना करके बैठना यह दूसरा अवनमन है । तत्पश्चात् पुनः उठकर सामायिक दण्डक के साथ आत्मशुद्धि करके कषाय के परित्यागपूर्वक शरीर से ममत्व छोड़ना, चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करना तथा जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करना-इस सब अनुष्ठान को करते हुए बैठना, यह तीसरा अवनमन है । (५) सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है—सामायिक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है, यह एक सिर हुआ। उसी सामायिक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है यह दूसरा सिर १. इस बारह प्रकार के तप की प्ररूपणा धवला में विस्तार से की गई है। पु० १३, ५४-८८ १०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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