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सभी का अन्तर किया जाता है । यह अन्तरकरण अनिवृत्तिकरणकाल का संख्यातवा भाग शेष रह जाने पर किया जाता है।
विवक्षित कर्मों की अधस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्य की अन्तर्महर्तमात्र स्थितियों के निषेकों का जो परिणामविशेष से अभाव किया जाता है उसे अन्तरकरण कहते हैं। उन स्थितियों में अधस्तन स्थिति को प्रथम स्थिति और उपरिम स्थिति को द्वितीय स्थिति कहा जाता है। ___ इस प्रसंग में धवला में कहा है कि अन्तरकरण के समाप्त होने पर उस समय से जीव को उपशामक कहा जाता है । इस पर वहाँ शंका उत्पन्न हुई है कि ऐसा कहने पर उससे पूर्व जीव के उपशामकपने के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में कहा है कि इसके पूर्व भी वह उपशामक ही है, किन्तु उसे मध्यदीपक मानकर शिष्यों के सम्बोधनार्थ 'यह दर्शनमोहनीय का उपशामक है' ऐसा यतिवृषभाचार्य ने कहा है। इससे उक्त कथन अतीत भाग की उपशामकता का प्रतिषेधक नहीं है। ___ अव पूर्वोक्त पृच्छाओं में 'मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है इस पृच्छा के अभिप्राय को बतलाते हुए सूत्र (१,६-८,७) में कहा है कि अन्तरक रण करके वह मिथ्यात्व के तीन भागों को करता है--सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।
धवलाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि यह सूत्र मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति को गलाकर सम्यक्त्व प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे के समय में जो व्यापार होता है उसका प्ररूपक है । आगे सूत्र में 'अन्तरकरण करके' ऐसा जो कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि पूर्व में जो मिथ्यात्व की स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का घात किया गया है उसका वह फिर से घात करके अनुभाग की अपेक्षा उसके तीन भागों को करता है। इसका कारण यह है कि पाहुडसुत्त-कषायप्राभूत की चूणि-में मिथ्यात्व के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन और उससे सम्यक्त्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है, ऐसा निर्देश किया गया है और उपशमसम्यक्त्वकाल के भीतर अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन के बिना मिथ्यात्व का घात नहीं होता है, क्योंकि वैसा उपदेश नहीं है। इसलिए सूत्र में जो 'अन्तरकरण करके' ऐसा कहा गया है उससे यह समझना चाहिए कि काण्डकघात के बिना मिथ्यात्व के अनुभाग को घातकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागरूप से परिणमाता हुआ प्रथम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथम समय में ही उसके तीन कर्माशों को उत्पन्न करता है।
__ आगे इस प्रसंग में गुणश्रेणि और गुणसंक्रमण को दिखाते हुए पचीस प्रतिव-पच्चीस पदवाले-दण्डक को किया है।
प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव दर्शनमोहनीय को कहाँ उपशमता है, इसे स्पष्ट १. तदो अंतरं कीरमाणं कदं । तदोप्पहुडि उवसामगो त्ति भण्णइ । क० प्रा० चूणि ६५-६६
(क० पा० सुत्त पृ० ६२७) २. णवरि सव्वपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीणं । सम्मत्तमणंतगुणहीणं । क० प्रा० चूणि
१४६-५० (क० पा० सुत्त पृ० १७१) ३. धवला पु० ६, पृ० २३४-३७ (यह पच्चीसप्रतिक दण्डक क० प्रा० चूणि में उसी रूप में
उपलब्ध होता है । देखिए क.० पा० सुत्त पृ० ६२६-३०) ४३८ / षट्लण्डागम-परिशीलन
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