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________________ करते हुए सूत्र (१,६-८,९) में कहा है कि वह उसे चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हुआ वह उसे पंचेन्द्रिय, संजी, गर्भोपक्रान्तिक व पर्याप्तों में उपशमाता है। इनके विपरीत एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों, असंज्ञियों, सम्मूच्र्छनों और अपर्याप्तों में नहीं उपशमाता है । संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क इन दोनों के भी उपशमाता है। सूत्रगत यह अभिप्राय सूत्रकार द्वारा पूर्व में भी व्यक्त किया जा चुका है।' धवलाकार ने भी यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि इस सूत्र के द्वारा पूर्वप्ररूपित अर्थ को ही स्मरण कराया गया है (पु० ६, पृ० २३८)। आगे यहाँ धवला में 'एस्थ उघउज्जंतीओ गाहाओ' सूचना के साथ पन्द्रह गाथाएँ उद्धत की गयी हैं। इन गाथाओं द्वारा इसी अभिप्राय को विशद किया गया है कि दर्शनमोहनीय का उपशम किन अवस्थाओं में किया जा सकता है, क्या वह सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो सकता है, उसका प्रस्थापक व निष्ठापक किस अवस्था में होता है, किस स्थितिविशेष में तीन कर्म उपशान्त होते हैं तथा उपशामक के बन्ध किस प्रत्यय से होता है; इत्यादि। उपशामना किन क्षेत्रों में व किसके समक्ष होती है (१,६-८,१०), इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि इसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है वह किसी भी क्षेत्र में व किसी के समीप हो सकती है; क्योंकि सम्यक्त्व का ग्रहण सर्वत्र सम्भव है। क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति का विधान--इस प्रकार दर्णनमोहनीय की उपशामना के विषय में विचार करके तत्पश्चात् उसकी क्षपणा की प्ररूपणा की गयी है। यहाँ सर्वप्रथम सूत्रकार ने दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ करनेवाला जीव उसका कहाँ प्रारम्भ करता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि वह उसे अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में पन्द्रह कर्मभूमियों के भीतर जहाँ जिन, केवली व तीर्थकर होते हैं, उसे प्रारम्भ करता है (सूत्र १, ६-८,११)। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि क्षपणा के स्थान के विषय में पूछनेवाले शिष्य के लिए यह सूत्र आया है । सूत्र में जो अढ़ाई द्वीपसमुद्रों का निर्देश किया गया है उससे जम्बूद्वीप धातकीखण्ड और आधा पुष्कराध इन अढाई द्वीपों को ग्रहण करना चाहिए। कारण यह है कि इन्हीं द्वीपों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा को प्रारम्भ किया जा सकता है, शेष द्वीपों में उसकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि उनमें उत्पन्न होनेवाले जीवों में उसके क्षय करने की शक्ति नहीं है । समुद्रों में लवण और कालोद इन दो समुद्रों को ग्रहण किया गया है, क्योंकि अन्य समुद्रों में उसके सहकारी कारण सम्भव नहीं हैं। ___ इन अढ़ाई द्वीपों में अवस्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में ही उसकी क्षपणा को प्रारम्भ किया जाता है; क्योकि वहीं पर जिन, केवली व तीर्थंकर का रहना सम्भव है; जिनके पादमल में उसकी क्षपणा प्रारम्भ की जाती है । मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भागों में जिन व तीर्थकर का रहना सम्भव नहीं है । यद्यपि सूत्र में सामान्य से कर्मभूमियों में उसकी क्षपणा के प्रारम्भ करने १. देखिए सूत्र १,६-८,४ व ८-६ २. धवला पु० ६, पृ० २३८-४३, ये सब गाथाएं यथाक्रम से कपायप्राभूत में उपलब्ध होती हैं। केवल गा० ४६-५० में क्रमव्यत्यय हुआ है। देखिए क० पा० सुत्त गा० ४२-५६, पृ० ६३०-३८ ३. धवला पु० ६, पृ० २४३ षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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