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________________ सूत्र में यह कहा गया है कि इन्हीं सब कर्मों की स्थिति को जब जीव संख्यात सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है (१, ६-८, ५)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि अधःप्रवृत्त करण में स्थितिकाण्डक, अनुभागकण्डक, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होते; क्योंकि इन परिणामों में उक्त कर्मों के उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है। ऐसा जीव केवल अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ प्रत्येक समय में अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानिक अनुभाग को अनन्तगुणा हीन बाँधता है और प्रशस्त कर्मों के चतुःस्थानिक अनुभाग को वह उत्तरोत्तर प्रत्येक समय में अनन्तगुणा बाँधता है । यहाँ स्थितिबन्ध का काल अन्तर्मुहुर्त मात्र है। इस बन्ध के पूर्ण होने पर वह पल्य के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति को बाँधता है। इस प्रकार संख्यात हजार बार स्थितिबन्धापसरणों के करने पर अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त होता है। _अपूर्वकरण के प्रथम समय में जघन्य स्थितिखण्ड पल्योपम के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पृथक्त्व सागरोपम मात्र रहता है । अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में जो स्थितिबन्ध होता था, अपूर्वक रण के प्रथम समय में वह आयु को छोड़कर शेष कर्मों का उसकी अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन प्रारम्भ होता है । स्थितिबन्ध बँधनेवाली प्रकृतियों का ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुणश्रेणि भी प्रारम्भ हो जाती है । उसी समय अप्रशस्त कर्मों के अनुभाग के अनन्स बहभाग का घात प्रारम्भ हो जाता है। ___इस प्रकार अपूर्वकरणकाल के समाप्त होने पर अनिवृत्तिकरण को प्रारम्भ करता है। उसी समय अन्य स्थितिखण्ड, अन्य अनुभागखण्ड और अन्य स्थितिबन्ध भी प्रारम्भ हो जाते हैं। पूर्व में जिस प्रदेशाग्र का अपकर्षण किया गया था उससे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का अपकर्षण करके अपूर्वकरण के समान गलितशेष की गुणश्रेणि करता है। ___यहाँ शंका होती है कि सूत्र में केवल स्थितिबन्धापसरण की प्ररूपणा की गयी है; स्थितिघात, अनुभागघात आर प्रदेशघात की प्ररूपणा वहाँ नहीं है, अतः यहाँ उनकी प्ररूपणा करना उचित नहीं है। इसके समाधान में कहा है कि यह सूत्र तालप्रलम्बसूत्र के समान देशामर्शक' है, इससे यहाँ उनकी प्ररूपणा अनुचित नहीं है। ___ इस प्रकार हजारों स्थितिबन्ध, स्थितिखण्ड और अनुभागखण्डों के समाप्त हो जाने पर अनिवृत्तिकरण का अन्तिम समय प्राप्त होता है । प्रस्तुत चूलिका के प्रारम्भ में सूत्रकार द्वारा उद्भावित पृच्छाओं में कितने काल द्वारा' यह पृच्छा भी की गयी थी, उसे दिखलाने के लिए यहाँ सूत्र (१,६-८,६) में अनिवृत्तिकरण परिणामों के कार्य विशेष को स्पष्ट करते हुए निर्देश है कि वह अन्तर्मुहूर्त हटता है । __ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र अन्तरकरण का प्ररूपक है। किसके अन्तरकरण को करता है, इसे बतलाते हुए कहा है कि यहाँ चूंकि अनादि मिथ्यादष्टि का अधिकार है, इसलिए वह मिथ्यात्व के अन्तरकरण को करता है, ऐसा अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । सादि मिथ्यादृष्टि के होने पर तो उसके तीन भेदरूप जो दर्शनमोहनीय रहता है उस १. तालप्रलम्बसूत्र का स्पष्टीकरण पीछे पर किया जा चुका है। इसके लिए धवला पु० १, पृ० ६ का टिप्पण द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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