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________________ किया गया है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार उसके वे छह भेद इस प्रकार हैं-अनुगामी, अननु. गामी, वर्धमान, ही यमान, अवस्थित और अनवस्थित।' ० ख० में भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय की विवक्षा न करके सामान्य से अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इस सूत्र (५६) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सूत्र में न अनेक प्रकार का है' ऐसा कहने पर सामान्य से अवधिज्ञान अनेक प्रकार का है, ऐसा अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । ___ इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि इसके पूर्व में जिस गुणप्रत्यय अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है उसे ही अनेक प्रकार का क्यों न कहा जाय । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी ये भेद पाये जाते हैं । ___ सर्वार्थसिद्धि में क्षयोपशमप्रत्यय अवधिज्ञान के जिन छह भेदों का उल्लेख किया गया है वे १० ख० में निर्दिष्ट उन अनेक भेदों के अन्तर्गत हैं। ___ तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यरूप तत्त्वार्थवार्तिक में अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इन भेदों का भी ष० ख० के समान उल्लेख किया गया है। आगे वहाँ उस अवधिज्ञानोपयोग को एकक्षेत्र व अनेकक्षेत्र के भेद से दो प्रकार का भी निर्दिष्ट किया गया है । यह यहाँ विशेष स्मरणीय है कि सर्वार्थसिद्धिकार और तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है और उन्होंने अपनी-अपनी ग्रन्थरचना में उसका उपयोग भी किया है। इसका विशेष स्पष्टीकरण इन ग्रन्थों के प्रसंग में आगे किया जानेवाला है। ७. तत्त्वार्थसूत्र में आगे जहाँ मनःपर्ययज्ञान के ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमन:पर्यय इन दो भेदों का निर्देश किया गया है वहां प० ख० में इन दोनों ज्ञानों की आवरक ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय इन दो प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। विशेष इतना है कि ष० ख० में ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय को ऋजुमनोगत आदि के भेद से तीन प्रकार का और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय को ऋजु-अनजुमनोगत आदि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। इसके अतिरिक्त वहाँ इन दोनों ज्ञानों के विषयभेद १. स० सि० १-२२ २. सूत्र ५,५, ५६ (पु० १३, पृ० २६२) ३. धवला पु० १३, पृ० २६३ । ४. 'त० वा० १, २२,५ ५ स एषोऽवधिज्ञानोपयोगो द्विधा भवति एकक्षेत्रोऽनेकक्षेत्रश्च । श्री-वृषभ-स्वस्तिक-नंद्या वर्ताद्यन्यतमोपयोगोपकरण एकक्षेत्र: । तदनेकोपकरणोपयोगोऽनेकक्षेत्र: । त० वा० १, २२, ५ (पृ० ५७)। ६. त० सूत्र १-२३ और षट्खण्डागम सूत्र ५,५,६०-६१ (पु० १३, पृ० ३१८) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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