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'यहाँ गुरु के उपदेशानुसार छह अनुयोगद्वारों के आश्रय से वर्गणाजीवप्रदेशों की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना कर प्ररूपणा, प्रमाण; श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों में वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों की प्ररूपणा की है (पु० १०, पृ० ४४२-५१)।
स्थानप्ररूपणा के प्रसंग में एक जघन्य योगस्थान कितने स्पर्धकों का होता है, इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने इन तीन अनुयोद्वारों का निर्देश किया है-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । इनमें से दूसरे 'प्रमाण' अनुयोगद्वार में किस वर्गणा में कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, इत्यादि का विचार धवला में गणित प्रक्रिया के आधार से विस्तारपूर्वक किया गया है (पृ० ४६३-७६)। ५. वेदनाक्षेत्रविधान
यह 'वेदना' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में पांचवां है। पिछले वेदनाद्रव्यविधान के समान इस अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में भी सूत्रकार ने पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा है (सूत्र ४,२,५,१-२)।
प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने क्षेत्र के अनेक अर्थों में से प्रसंगानुरूप अर्थ को प्रकट करने के लिए क्षेत्रविषयक निक्षेप किया है। तदनुसार यहां नोआगमद्रव्यक्षेत्र के तीसरे भेदभूत तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यक्षेत्र को अधिकारप्राप्त कहा गया है। नोआगमद्रव्यक्षेत्र का अर्थ आकाश है जो लोक और अलोक के भेद से दो प्रकार का है।
पदमीमांसा अनुयोगद्वार के प्रसंग में ज्ञानावरणीयवेदनाक्षेत्र की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, अनुत्कृष्ट है, जघन्य है या अजघन्य है, इन चार पच्छाओं को उद्भावित करते हुए उत्तर में उसे सूत्रकार ने उत्कृष्ट आदि चारों प्रकार की कहा है। ____ इन दोनों सूत्रों को धवलाकार ने देशामर्शक कहकर सूत्रनिर्दिष्ट चार पृच्छाओं के अतिरिक्त सादि-अनादि आदि अन्य नो पृच्छाओं और उनके समाधान को सूत्रसूचित कहा है । इस प्रकार सूत्रसूचित होने से धवला में उन चार के साथ अन्य नौ पृच्छाओं को भी उठाकर यथाक्रम से उनका समाधान किया गया है (पु० ११, पृ० ४-११)। ___ यह सब प्ररूपणा यहां धवला में ठीक उसी पद्धति से की गयी है जिस पद्धति से वेदनाद्रव्यविधान में की जा चुकी है।
स्वामित्व अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में उत्कृष्टपद के आश्रय से क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट किसके होती है, इस पृच्छा को उठाकर उसके उत्तर में कहा गया है कि वह एक हजार योजन अवगाहनावाले उस मत्स्य के होती है जो स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित है । आगे सूत्रकार ने उसकी कुछ अन्य विशेषताओं का भी उल्लेख किया है (सूत्र ४,२, ५,७-१२)।
सूत्र आठ की व्याख्या करते हुए धवला में उस प्रसंग में यह पूछा गया है कि उस मत्स्य का आयाम तो एक हजार योजन सूत्र में निर्दिष्ट है, उसका विष्कम्भ और उत्सेध कितना है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसका विष्कम्भ पांच सौ (५००) योजन और उत्सेध दो सौ पचास (२५०) योजन है। इस पर पुनः यह पूछा गया है कि वह सूत्र के बिना कैसे जाना जाता है । उत्तर में प्रथम तो धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्य परम्परागत पवाइ. ज्जंत उपदेश से जाना जाता है। तत्पश्चात् यह भी कहा है कि उस महामत्स्य के विष्कम्भ
४५/-बदलण्यागम-परिशीलन
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