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प्ररूपणा की जा रही है। अभिप्राय यह है कि वेदनाद्रव्यविधान की चूलिका के प्ररूपणार्थ आगे का ग्रन्थ आया है। क्योंकि सूत्रों से सूचित अर्थ की प्ररूपणा करना, यह चूलिका का लक्षण है।
जैसी कि सूत्रकार द्वारा सूचना की गयी है, यहाँ मूल ग्रन्थ में प्रथमतः योगविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है (सूत्र ४,२,४,१४४-७३) ।
अन्तिम (१७३३) सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह मूलवीणा का अल्पबहुत्व आलाप देशामर्शक है, क्योंकि उसमें प्ररूपणा आदि अनुयोगद्वारों की सूचना की गयी है। इसलिए यहाँ प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की जाती है।
योगप्ररूपणा
योगों की प्ररूपणा में सूत्रकार ने दस अनुयोंगद्वारों का निर्देश किया है।
(सूत्र ४,२,४,१७५-७६) प्रथम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में प्रथमतः धवलाकार ने योगविषयक निक्षेपार्थ को प्रकट करते हुए उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं—नामयोग, स्थापनायोग, द्रव्ययोग और भावयोग । इस प्रसंग में नोआगमद्रव्ययोग के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्ययोग को अनेक प्रकार का बतलाते हुए उनमें कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया गया है--सूर्य-नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, ग्रह-नक्षत्रयोग, कोण-अंगारयोग, चूर्णयोग मन्त्रयोग इत्यादि।
भावयोग के प्रसंग में नोआगमभावयोग के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-गुणयोग, सम्भवयोग और योजनायोग । इनमें गुणयोग सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग के भेद से दो प्रकार का है । रूप-रसादि के साथ पुद्गलद्रव्य का जो योग है, यह अचित्तगुणयोग है। इसी प्रकार आकाश-कालादि द्रव्यों का जो अपने-अपने गुणों के साथ योग है, इसे भी अचित्तगणयोग जानना चाहिए। सचित्तगुणयोग औदयिक आदि के भेद से पाँच प्रकार का है। उनमें गति-लिंग आदि के साथ जीव का योग है, यह औदयिक गुणयोग है । औपशमिक सम्यक्त्व व संयम के साथ जो जीव का योग है वह औपशमिक गुणयोग कहलाता है। केवलज्ञान-दर्शन आदि के साथ होनेवाले जीव के योग को क्षायिकगुणयोग कहा जाता है । अवधिज्ञान व मनःपर्ययज्ञान आदि के साथ जो जीव का योग है उसका नाम क्षायोपशमिकगुणयोग है। जीवत्व व भव्यत्व आदि के साथ रहनेवाला जीव का योग पारिणामिकगुणयोग कहलाता है ।
देव मेरु के चलाने में समर्थ है इस प्रकार के योग का नाम सम्भवयोग है। योजनायोग तीन प्रकार का है-उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धियोग और परिणामयोग ।
इन सब योगभेदों में यहाँ योजनायोग अधिकारप्राप्त है, क्योंकि शेष योगों से कर्मप्रदेशों का आना सम्भव नहीं है (पु० १०, पृ० ४३२-३४)।
धवला में 'स्थान' को भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावस्थान के भेद से चार प्रकार का बतलाकर उनके अवान्तर भेदों को भी स्पष्ट करते हुए प्रकृत में औदयिक भावस्थान को अधिकारप्राप्त कहा गया है, क्योंकि तत्प्रायोग्य अघातिया कर्मों के उदय से योग उत्पन्न होता है।
सूत्रकार ने प्रकृत योगस्थान प्ररूपणा में अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा व वर्गप्ररूपणा आदि जिन दस अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है उनमें वर्गणाप्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने
षटाण्डागम पर टीकाएं | ४८५
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