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________________ अन्त में यहाँ 'अब उपसंहार कहा जाता है ऐसी सूचना के साथ जिन विशेषताओं को प्रकट किया गया है उन सबका उल्लेख धवला में विस्तारपूर्वक है। सूत्र में जो आगे आयु की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना को उत्कृष्ट द्रव्यवेदना से भिन्न निर्दिष्ट किया गया है उसका स्पष्टीकरण भी धवला में विस्तार से किया गया है (पु० १०, पृ० २५५-६८)। ज्ञानवरणीय को जघन्य द्रव्यवेदना ज्ञानावरणीय की जघन्य द्रव्यवेदना क्षपितकौशिक क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीव के उसके अन्तिम समय में होती है। उसकी जिन विशेषताओं को यहां प्रकट किया गया है वे सब प्रायः पूर्वोक्त ज्ञानावरण की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी गुणितकौशिक की विशेषताओं से विपरीत हैं (पु० १०, पृ० २६८-६९)। _ 'इससे भिन्न उसकी अजघन्य द्रव्यवेदना है' इस सूत्र (४,२,४,७६) के अभिप्राय को भी धवलाकार ने आवश्यकतानुसार स्पष्ट कर दिया है। ___इसी पद्धति से आगे सूत्रकार द्वारा दर्शनावरणीयादि अन्य कर्मों की जघन्य-अजघन्य द्रव्यवेदना की प्ररूपणा की गयी है । उसमें जो थोड़ी विशेषता रही है उसका स्पष्टीकरण भी धवला में किया गया है। आयु की जघन्य द्रव्यवेदना से भिन्न उसकी अजघन्य द्रव्यवेदना है, इस प्रकार से सूत्र (४,२,४,१२२) में जो आयुकर्म के अजघन्य द्रव्य की संक्षेप में सूचना की गयी है उसका धवला में विस्तार से विश्लेषण हुआ है (पु० १०, पृ० ३६६-८४)। इस प्रकार वेदनाद्रव्यविधान के अन्तर्गत दूसरा 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। अल्पबहुत्व वेदनाद्रव्यविधान के इस तीसरे अनुयोगद्वार में सूत्रकार ने जो जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य-उत्कृष्टपद इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्यविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है उसमें कुछ विशेष व्याख्येय तत्त्व नहीं है, वह मूलग्रन्थ से ही स्पष्ट है। वेदनाद्रव्यविधान चूलिका पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन सीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्य की प्ररूपणा के बाद सूत्रकार ने कहा है कि यहां जो यह कहा गया है कि 'बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों और जघन्य योगस्थानों को प्राप्त होता है उसके प्रसंग में अल्पबहुत्व दो प्रकार है-योगस्थानअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व (सूत्र ४,२,४,१४४)। यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि उक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से वेदनाद्रव्यविधान की प्ररूपणा करके उसके समाप्त हो जाने पर आगे का ग्रन्थ किस लिए कहा जा रहा है, धवला में इसका समाधान है। तदनुसार उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामित्व के प्रसंग में 'बहुत-बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है (सूत्र १२) तथा जघन्य स्वामित्व के प्रसंग में भी बहुत-बहुत बार जघन्य योगास्थानों को प्राप्त होता है' (सूत्र ५४) यह कहा गया है। इन दोनों ही सूत्रों का अर्थ भली-भांति अवगत नहीं हुआ, इसलिए इन दोनों सूत्रों के विषय में शिष्यों को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए योगविषयक / पदसण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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