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________________ इस प्रसंग में धवला में यह शंका उपस्थित हुई है कि भाव को पारिणामिक कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अन्य कारणों से न उत्पन्न होनेवाले परिणाम के अस्तित्व का विरोध है। और यदि अन्य कारणों से उसकी उत्पत्ति मानी जाती है तो उसे पारिणामिक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि जो पारिणामिक–कारण से रहित है-उसके सकारण होने का विरोध है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जो भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न होता है उसे पारिणामिक भाव कहा जाता है, न कि अन्य कारणों से रहित को, क्योंकि कारण के बिना उत्पन्न होनेवाले किसी भी परिणाम की सम्भावना नहीं है। यहाँ दूसरी शंका यह उठायी गयी है कि सासादनसम्यग्दृष्टिपना भी सम्यक्त्व और चारित्र के विघातक अनन्तानुबन्धिचतुष्क के उदय के बिना नहीं होता, तब वैसी स्थिति में उसे औदयिक क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। इसके उत्तर में धवलाकार ने लिखा है कि यह कहना सत्य है, किन्तु यहाँ वैसी विवक्षा नहीं रही है। आदि के चार गुणस्थानों के भावों की प्ररूपणा में दर्शनमोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों की विवक्षा वहाँ नहीं रही है। चूंकि सासादनसम्यवत्व दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम इनमें से किसी की अपेक्षा नहीं करता है, अतएव वहाँ दर्शनमोहनीय की अपेक्षा निष्कारण है। यही कारण है कि उसे पारिणामिक कहा जाता है। इस पर यदि यह कहा जाय कि इस न्याय से तो सभी भावों के पारिणामिक होने का प्रसंग प्राप्त होता है तो वैसा कहने में कुछ दोष नहीं है, क्योंकि वह विरोध से रहित है । अन्य भावों में जो पारिणामिकता का व्यवहार नहीं किया गया है उसका कारण यह है कि सासादनसम्यवत्व को छोड़कर अन्य कोई ऐसा भाव नहीं है जो विवक्षित कर्म से उत्पन्न न हुआ हो।' आगे सूत्र (१,७,४) में क्रमबद्ध सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक भाव कहा गया है। इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गयी है कि प्रतिबन्धक कर्म का उदय होने पर भी जो जीवगुण का अंश प्रकट रहता है उसे क्षायोपशमिक कहा जाता है । कारण कि विवक्षित कर्म में जो पूर्णतः या जीवगुण के घात करने की शक्ति है उसके अभाव को क्षय कहा जाता है। इस क्षयरूप उपशम का नाम क्षयोपशम है। इस प्रकार के क्षयोपशम के होने पर जो भाव उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक कहना चाहिए । परन्तु सम्यग्मिथ्यात्व का उदय होने पर सम्यक्त्व का लेश भी नहीं पाया जाता है। इसी से तो उस सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाती कहा जाता है, इसके बिना. उसके सर्वघातीपना नहीं बनता है। ऐसी परिस्थिति में उस सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक कहना संगत नहीं है। __ इस शंका का परिहार करते हुए धवला में कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यात्व का उदय होने पर श्रद्धान और अश्रद्धानस्वरूप जात्यन्त रभूत मिश्र परिणाम होता है। उसमें जो श्रद्धानात्मक अंश है वह सम्यक्त्व का अवयव है जिसे सम्यग्मिथ्यात्व का उदय नष्ट नहीं करता है। इसलिए उस सम्यग्मिथ्यात्व को क्षायोपशमिक कहना असंगत नहीं है। __ इस पर शंकाकार पुनः कहता है कि अश्रद्धानरूप अंश के बिना केवल श्रद्धानरूप अंश को 'सम्यग्मिथ्यात्व' नाम प्राप्त नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशिक भाव नहीं हो सकता १. धवला पु० ५, १६६-६७ ४२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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