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की, मिथ्यादर्शन एक प्रकार का, असिद्धत्व एक प्रकार का, अज्ञान एक प्रकार का, लेश्या छह प्रकार की और असंयम एक प्रकार का है । ये सब मिलकर इक्कीस भेद हो जाते हैं।
इसी प्रकार आगे औपशमिक आदि शेष चार जीवभावों के भेदों का निर्देश भी स्थान और विकल्प की अपेक्षा किया गया है, जो प्रायः तत्त्वार्थसूत्र (२,२-७) के समान है। विशेषता यह रही है कि यहाँ स्थान की अपेक्षा भी भावों के निर्देश किया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में सामान्य से ही उनके भेदों का उल्लेख है। यहाँ धवला में स्थान और विकल्प की अपेक्षा जो उन भावभेदों का उल्लेख है उनकी आधार प्राचीन गाथाएँ रही हैं, धवलाकार ने उन्हें यथाप्रसंग उद्धत भी कर दिया है । ___आगे वहाँ 'अथवा' कहकर सांनिपातिक की अपेक्षा छत्तीस भंगों का निर्देश है। सांनिपातिक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस गुणस्थान अथवा जीवसमास में जिन बहुत से भावों का संयोग होता है उन भावों का नाम सांनिपातिक है। आगे एक, दो, तीन, चार और पाँच भावों के संयोग से होनेवाले भगों की प्ररूपणा की जाती है, ऐसी सूचना करते हुए एकसंयोगी भंग को इस प्रकार प्रकट किया गया है--मिथ्यादष्टि और असंयत यह औदयिकभाव का एक संयोगी भंग है । अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ये दोनों भाव होते हैं । इनमें दर्शनमोहनीय के उदय से मिथ्यात्व होता है और संयमघाती कर्मों के उदय से असंयत भाव होता है। इस प्रकार ये दोनों औदयिक भाव हैं, जिनका संयोग मिथ्याष्टि गणस्थान में देखा जाता है। इस प्रकार यह एकसंयोगी भंग है।
आगे धवला में यह सुचना कर दी गयी है कि इसी क्रम से सब विकल्पों की प्ररूपणा कर लेना चाहिए।'
ओघ की अपेक्षा भावप्ररूपणा
प्रस्तुत भावों की ओघ की अपेक्षा प्ररूपणा करते हुए सूत्र (१,७,२) में मिथ्यात्व को औदयिक भाव निर्दिष्ट किया गया है।
इसकी व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि मिथ्यावृष्टि के ज्ञान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि अन्य भी कितने ही भाव होते हैं। उनका उल्लेख सूत्र में नहीं किया गया है, अतः उनके अभाव में संसारी जीवों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। शंकाकार ने दो गाथाओं को उद्धृत करते हुए उनके द्वारा मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में सम्भव उन भावों के भंगों का भी निर्देश किया है।
इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्या दृष्टि के जो और भी भाव होते हैं सूत्र में उनका प्रतिषेध नहीं किया गया है। किन्तु मिथ्यात्व को छोड़कर जो अन्य गति-लिंग आदि उसके साधारण भाव रहते हैं वे मिथ्यादृष्टित्व के कारण नहीं हैं, मिथ्यात्व का उदय ही एक मिथ्यादृष्टित्व का कारण है, इसीलिए 'मिथ्या दृष्टि' यह औदयिक भाव है, ऐसी सूत्र में प्ररूपणा की गयी है (पु० ६, पृ० १६४-६६)।
आगे के सूत्र (१,७,३) में सासादन सम्यग्दृष्टि भाव को पारिणामिक बतलाया गया है ।
१. धवला पु० ५,१८७-६३ (सांनिपातिक भावों का स्पष्टीकरण तत्त्वार्थवार्तिक (२,७,२१-२४)
में विस्तार से किया ग
षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४२३
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