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क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । धवला में क्रम से इन पाँचों भावों के स्वरूप को भी स्पष्ट कर दिया गया है।
उपर्युक्त नामादि चार भावों में यहाँ नोआगमभावभाव प्रसंगप्राप्त है। इस नोआगभावभाव के जो यहाँ औदयिकादि पाँच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उन्हीं का प्रकृत में प्रयोजन है। कारण यह है कि जीवों में वे पांचों ही भाव पाये जाते हैं, शेष द्रव्यों में वे पाँच भाव नहीं हैं। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि शेष द्रव्यों में से पुद्गल द्रव्यों में औदयिक और पारिणामिक ये दो भाव ही उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन चार द्रव्यों में एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है।
पूर्व पद्धति के अनुसार धवला में प्रस्तुत भाव का व्याख्यान भी निर्देश-स्वामित्व आदि के क्रम से किया है। ___ निर्देश-यहाँ भाव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं, अथवा पूर्वापर कोटि से भिन्न वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव समझना चाहिए।
स्वामित्व-इस प्रसंग में प्रथम तो यह कहा गया है कि भाव के स्वामी छहों द्रव्य हैं। तत्पश्चात् प्रकारान्तर से यह भी कह दिया है—अथवा भाव का स्वामी कोई नहीं है, क्योंकि संग्रहनय की अपेक्षा परिणामी और परिणाम में कोई भेद नहीं है।
साधन-भावों के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि वे कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशम अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। जैसे-जीवद्रव्य के भाव तो उपर्युक्त पाँचों कारणों से उत्पन्न होते हैं, पर पुद्गलद्रव्य के भाव कर्मोदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। शेष धर्मादि चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।
अधिकरण--इसके प्रसंग में कहा गया है कि वे भाव द्रव्य में ही रहते हैं, क्योंकि गुणी को छोड़कर गुणों का अन्यत्र कहीं रहना सम्भव नहीं है। ____ काल-भावों के काल को स्पष्ट करते हुए उसे अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित, सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित कहा गया है। जैसे-अभव्य जीवों का असिद्धत्व, धर्मद्रव्य का गतिहेतुत्व, अधर्म द्रव्य का स्थिति हेतुत्व, आकाश का अवगाहन-स्वभाव और कालद्रव्य का परिणामहेतुत्व इत्यादि भाव अनादि-अपर्यवसित हैं । भव्य जीवों के असिद्धत्व, भव्यत्व, मिथ्यात्व और असंयम इत्यादि भाव अनादि-सपर्यवसित हैं। केवलज्ञान व केवलदर्शन आदि भाव सादि-अपर्यवसित हैं । सम्यक्त्व व संयम को प्राप्त करके पीछे पुनः मिथ्यात्व व असंयम को प्राप्त होनेवाले जीवों का मिथ्यात्व व असंयम भाव सादि-सपर्यवसित है।
विधान-- इसके प्रसंग में यहाँ पूर्वोक्त औदयिक आदि पाँच भावों का उल्लेख पुनः किया गया है। आगे इनके अवान्तर भेदों का भी उल्लेख है। यथा--जीवद्रव्य का औदयिक भाव स्थान की अपेक्षा आठ प्रकार का और विकल्प की अपेक्षा इक्कीस प्रकार का है। स्थान का अर्थ उत्पत्ति का हेतु है। इसे स्पष्ट करते हुए धवला में एक गाथा उद्धृत की गयी है, जिसका अभिप्राय यह है---गति, लिंग, कषाय, मिथ्यादर्शन, असिद्धत्व, अज्ञान, लेश्या और असंयम ये आठ उदय के स्थान हैं। इनमें गति चार प्रकार की, लिंग तीन प्रकार का, कषाय चार प्रकार
१. धवला पु० ५, पृ० १८३-८६
४२२ / षखण्डागम-परिशीलन
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