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________________ यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रस्तुत अन्तरानुगम अनुयोगद्वार में नाना जीवों की अपेक्षा जिन गुणस्थानवी जीवों के अन्तर का अभाव निर्दिष्ट है उनका कभी अन्तर उपलब्ध नहीं होताउनका सदा सद्भाव बना रहता है । जैसे, नाना जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त मिथ्यादष्टि जीवों के अन्तर का अभाव। ऐसे अन्य गुणस्थान ये भी हैं-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (सूत्र ६) तथा सयोगिकेवली (सूत्र १६)। ___ मार्गणाओं में ये आठ सान्तर मार्गणाएँ हैं, जिनमें नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर उपलब्ध होता है १. गतिमार्गणा में लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होता है (सूत्र ७८-७६)। २-४. योगमार्गणा में वैक्रियिकमिश्र (सूत्र १७०-७१) और आहारक-आहारक मिश्र (सूत्र १७४-७५) । नाना जीवों की अपेक्षा इनका जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर क्रम से एक समय व बारह मुहूर्त तथा एक समय व वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। ५. संयममार्गणा में सूक्ष्मसाम्प रायसंयत उपशामक (२७२-७३)। इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व मात्र अन्तर होता है । ६. सम्यक्त्व मार्गणा के अन्र्तगत उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से सात रात-दिन (सूत्र ३५६-५७), संयतासंयतों का यह अन्तर जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से चौदह रात-दिन (३६०-६१), प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से पन्द्रह रात-दिन (सूत्र ३६४-६५), तीन उपशामकों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व (सूत्र ३६८-६६) तथा उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थों का जघन्य से एक समय व उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व (सूत्र ३७२-७३) होता है। ७-८. सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होता है (सूत्र ३७५-७६) । ७. भावानुगम यह जीवस्थान का सातवाँ अनुयोगद्वार है। जैसाकि नाम से ही जाना जाता है, इसमें औपशमिकादि पाँच भावों की प्ररूपणा की गयी है। प्रथम सत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने भाव के इन चार भेदों का निर्देश किया है—नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव। इनके स्वरूप व अवान्तर भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य भाव सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। इनमें जीवद्रव्य को सचित्त, पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों को अचित्त और व.थंचित् जात्यन्तररूपता को प्राप्त पुद्गल व जीव द्रव्यों के संयोग को मिश्रनोआगमद्रव्यभाव कहा है । भावभाव दो प्रकार का है-आगमभावभाव और नोआगमभावभाव । इनमें नोआगमभावभाव पाँच प्रकार का है ---औदयिक, औपशमिक, १. उवसम-सुहमाहारे वेगविय मिस्स-ण रअपज्जत्ते । सासणसम्मे मिस्से सान्तरगा मग्गणा अट्ठ ।। सत्तदिणा छम्मासा वासपुधत्तं च बारस मुहुता। पल्लासंखं तिण्णं वरमवरं एगसमयो दु ।।—गो०जी०, १४२-४३ . षदसण्डागम पर टीकाएँ । ४२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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