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________________ नहीं है, ऐसा कहते हुए उन्होंने आगे उन गाथाओं को उद्धृत कर दिया है।' वे दोनों गाथाएं प्रकृत जंबूदीवपण्णती में उपलब्ध होती हैं। उनमें से प्रथम गाथा में अधोलोक का घनफल और दूसरी गाथा में मृदंगाकृतिक्षेत्र (ऊर्ध्वलोक) का घनफल गणित-प्रक्रिया के आधार से निकाला गया है । विशेषता यह है कि वहाँ इन दो गाथाओं के मध्य में एक अन्य गाथा और भी है, जिसमें अधोलोक और ऊर्ध्वलोक सम्बन्धी घनफल के प्रमाण का केवल निर्देश किया गया है। उनमें प्रथम गाथा से बहुत-कुछ मिलती हुई एक गाथा (१-१६५) तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध होती है । १०. जीवसमास-इसके सम्बन्ध में कुछ विचार ग्रन्थोल्लेख के प्रसंग में किया गया है । (१) धवला में अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भेदों की प्ररूपक जिन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है, उनके पूर्वार्ध जीवसमास (गा० ३१-३३) में शब्दशः समान रूप में उपलब्ध होते हैं । जैसा पीछे 'आचारांगनिर्यक्ति' के प्रसंग में स्पष्ट किया गया है, यहाँ उन गाथाओं के उत्तरार्ध आचारांगनियुक्तिगत उन गाथाओं के उत्तरार्ध के समान हैं; जबकि धवला में उद्धृत उन गाथाओं के उत्तरार्ध पंचसंग्रहगत उन गाथाओं (१,७८-८०) के समान हैं। (२) इसके पूर्व इस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में मार्गणाओं के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवलाकार ने आहारक और अनाहारक जीवों के स्वरूप का निर्देश किया है । उस प्रसंग में उन्होंने 'उक्तं च' कहकर "विग्गहगइमावण्णा" आदि एक गाथा को उद्धत किया है। यह गाथा जीवसमास में उपलब्ध होती है। ११. तत्त्वार्थवातिक-जैसा कि 'ग्रन्थोलेख' के प्रसंग में पीछे (पृ० ५८७) स्पष्ट किया जा चुका है, धवलाकार ने इस तत्त्वार्थवार्तिक का उल्लेख 'तत्त्वार्थभाष्य' के नाम से किया है। अनेक प्रसंगों पर नामनिर्देश के बिना भी उसके कितने ही वाक्यों को धवला में उद्धत किया गया है। यह स्मरणीय है कि धवलाकार ने तत्त्वार्थवार्तिक के अनेक सन्दर्भो को उसी रूप में धवला में आत्मसात् कर लिया है। जैसे (१) प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्, सकलादेश इत्यर्थः, तेन प्रकाशितानां न प्रमाणाभासपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्व-नास्तित्व-[नित्या] नित्यत्वाद्यन्तात्मनां [धनन्तात्मनां] जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायास्तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषंगद्वारेणेत्यर्थः।- तवा० १,३३,१ "प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः इति । प्रकर्षण मानं प्रमाणम्, सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्व-नास्तित्व-नित्यानित्यत्वाद्यनन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषंगद्वारे १. धवला, पु० ४, पृ० २०-२१ २. जं०दी० प्र० संगहो ११,१०८-१० ३. धवला, पु० १, पृ० २७३ ४. देखिये धवला पु० १, १५३ व जी०स० गाथा ८२; यह गाथा दि० पंचसंग्रह (१-१७७) और श्रावकप्रज्ञप्ति (गा०६८) में भी उपलब्ध होती है। अनिर्दिष्टनाम ग्रन्थ / ६१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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