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णत्यर्थः।"-धवला, पु० ६, पृ० १६५-६६
(२) शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दः ।XX स च लिंग-संख्या-साधनाविव्यभिचारनिवत्तिपरः।xxx लिंगव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिंगे पुल्लिगाभिधानं तारका स्वातिरिति । पल्लिगे स्व्यभिधानमवगमो विद्यति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानं वीणाऽऽतोद्यमिति । नपुंसके स्त्र्यभिधानमायुधं शक्तिरिति। पुल्लिगे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति । नपुंसके पुल्लिगाभिधानं द्रव्यं परशुरिति ।-त०वा० १,३३,८-६६
"शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दः। अयं नयः लिंग-संख्या-काल-कारक-पुरुषोपग्रहव्यभिचारनिवत्तिपरः। लिंगव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिगे पुल्लिगाभिधानम्-तारका स्वातिरिति । पल्लिगे स्च्यभिधानम्-अवगमो विद्यति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम्-वीणा आतोद्यमिति । नपुंसके स्थ्यभिधानम्-आयुधं शक्तिरिति । पुल्लिगे नपुंसकाभिधानम्-पटो वस्त्रमिति । नसके पुल्लिगाभिधानम्-द्रव्यं परशुरिति ।"'--धवला पु०६, पृ० १७६-७७ ___आगे इस शब्दनय से सम्बन्धित संख्या, साधन, काल और उपग्रह विषयक सन्दर्भ भी दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान हैं। विशेष इतना है कि साधन और काल के विषय में क्रमध्यत्यय हुआ है।
शब्दनय का उपसंहार करते हुए दोनों ग्रन्थों में समान रूप में यह भी कहा गया है
"एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः (धवला-न युक्ताः) अन्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । xxx तस्माद्यथालिगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।”
यहां ये दो ही उदाहरण दिये गये हैं, ऐसे अन्य भी कितने ही और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।
१२. तत्त्वार्थसत्र-'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में यह पूर्व (पृ० ५८६-८७) में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवला में तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को ग्रन्थनामनिर्देश के साथ उद्धृत किया गया है। उनके अतिरिक्त उसके अन्य भी कितने ही सूत्रों को यथाप्रसंग ग्रन्थनामनिर्देश के बिना धवला में उद्धत किया गया है।
१३. तिलोयपण्णत्ती--यह पीछे (पृ० ५८७-८६) 'ग्रन्थोल्लेख' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त तिर्यग्लोक के अवस्थान और राजु के अर्धच्छेदविषयक प्रमाण के सम्बन्ध में अपने अभिमत की पुष्टि में तिलोयपण्णत्तिसुत्त' को ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक प्रमाण के रूप में उपस्थित किया है।
अब यहाँ हम धवला में प्ररूपित कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करना चाहते हैं जो या तो
१. यह शब्दनयविषयक सन्दर्भ सत्प्ररूपणा (पु० १, पृ० ८६-८९) में भी इसी प्रकार का है। २. उदाहरणस्वरूप देखिये पु० ६, पृ० १६४ में "प्रमाण-नय रधिगमः" इत्यनेन सूत्रेणापि
(त०सू० १-६) नेदं व्याख्यानं विघटते । पु० १३, पृ० २११ में “रूपिष्ववधेः" (त०सू० १-२७) इति वचनात् । आगे पृ० २२० में "न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्" (तसू० १-१६) इति तत्र तत्प्रतिषेधात् । आगे पृ० २३४-३५ में "बहु-बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वाणां सेतराणाम्" (त० सू० १-१६) संख्या-वैपुल्यवाचिनो बहु-शब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । इत्यादि
६१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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