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________________ इसी तिलोयपणत्ति पर आधारित हैं या फिर उसके समान कोई अन्य प्राचीन ग्रन्थ धवलाकार के समक्ष रहा है, जिसको उन्होंने उनका आधार बनाया है। इसका कारण यह है कि वे प्रसंग ऐसे हैं जो शब्द और अर्थ से भी तिलोयपण्णत्ती से अत्यधिक समानता रखते हैं । यथा (१) धवलाकार ने षट्खण्डागम की इस टीका को प्रारम्भ करते हुए स्वकृत मंगल के पश्चात् इस गाथा को उपस्थित किया है मंगल-णिमित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । वागरिय छापि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो ।। इसके अनन्तर वे कहते हैं कि आचार्य-परम्परा से चले आ रहे इस न्याय को मन से अवधारित कर 'पूर्वाचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय का हेतु है' ऐसा मानकर पुष्पदन्ताचार्य उपर्युक्त मंगल आदि छह की कारणपूर्वक प्ररूपणा करने के लिए सूत्र कहते हैं । इस प्रकार कहते हुए धवलाकार ने आगे आ० पुष्पदन्त द्वारा ग्रन्थ के प्रारम्भ में किये गये मंगल के रूप में पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक गाथा (णमोकारमंत्र) की ओर ध्यान दिलाया गया है। उक्त पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगलगाथा की उत्थानिका में धवलाकार ने जो कहा है वह इस प्रकार है__"इदि णायमाइरियपरंपरागयं मणणावहारिय पुवाइरियायाराणुसरणं ति-रयण उत्ति पष्फदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणट्ठसुत्तमाह"---धवला १, पृ० ८ इसके साथ शब्द व अर्थ की समानता तिलोयपण्णत्ती की इस गाथा से देखने योग्य है इय णायं अवहारिय आइरियपरंपरागदं मणसा। पुथ्वाइरिया (आरा) णुसरण तिरयणणिमित्तं ॥-ति०प०१-८४ इसके पूर्व धवलाकार ने मंगल-निमित्त आदि उन छह की निर्देशक जिस गाथा को प्रस्तत किया है उसकी समकक्ष गाथा तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार उपलब्ध होती है मंगल-कारण-हेदू सत्थस्स पमाण-णाम-कत्तारा।। पठम चिय कहिदम्वा एसा आइरियपरिभासा ।।१-७ आगे शास्त्रव्याख्यान के कारणभूत उन मंगल आदि छह की क्रम से धवला में जिस प्रकार प्ररूपणा की गयी है उसी प्रकार से उनकी प्ररूपणा तिलोयपण्णत्ती में भी की गयी है। विशेषता यह है कि धवला में जहाँ उनकी वह प्ररूपणा शंका-समाधानपूर्वक अन्य प्रासंगिक चर्चा के साथ कुछ विस्तार से की गयी है वहां तिलोयपण्णत्ती में वह सामान्य रूप से की गयी है। यहाँ यह स्मरणीय है कि धवला में जहाँ इस प्ररूपणा का लक्ष्य षट्खण्डागम, विशेषकर उसका प्रथम खण्ड जीवस्थान, रहा है वहाँ तिलोयपण्णत्ती में उसका लक्ष्य उसमें प्रमुख रूप से प्ररूपित लोक रहा है। मंगल व निमित्त आदि उन छह के विषय में जो प्ररूपणा धवला और तिलोयपण्णत्ती में की १. धवला पु० १, पृ० ७ २. धवला, पु० १, पृ०८ अनिदिष्ट नाम ग्रन्थ / ६१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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