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देकर उसकी उपादेयता और अभ्यसनीयता को प्रकट किया है। ___ धवलाकार आ० वीरसेन ने प्रसंगप्राप्त सत्कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम) औरक यप्राभूत की असूत्र रूपता का निराकरण करते हुए उन्हें सूत्र सिद्ध किया है व द्वादशांगश्रुत जैसा महत्त्व दिया है (पु० १, पृ० २१७-२२)। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र
जैसा कि ऊपर 'आगम का महत्त्व' शीर्षक में स्पष्ट किया जा चुका है, परमागमरूपता को प्राप्त प्रस्तुत षट्खण्डागम मुमुक्षु भव्य जनों को मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त कराने का एक अपूर्व साधन है। कारण यह कि मोक्षमार्ग रत्नत्रय के रूप में प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का समुदयात्मक है। इनमें सम्यग्दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। वह सम्यग्दर्शन अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को कब और किस प्रकार से प्राप्त होता है, इसे स्पष्ट करने के लिए षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान में सर्वप्रथम मोक्ष-महल के सोपानभूत चौदह गुणस्थानों का विचार किया गया है। उन गुणस्थानों में वर्तमान जीव उत्तरोत्तर उत्कर्ष को प्राप्त होते हुए किस प्रकार से उस रत्नत्रय को वृद्धिंगत करते हैं, यह दिखलाया गया है। आगे वहीं गत्यादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से विभिन्न जीवों की विशेषता को भी प्रकट किया गया है।
इस जीवस्थान खण्ड से सम्बद्ध जो नौ चूलिकाएं हैं उनमें आठवीं 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चलिका है। उसमें प्रथमत: छठी और सातवीं इन पूर्व की दो चूलिकाओं की संगति को स्पष्ट करते हए यह कहा गया है कि इन दो चूलिकाओं में यथाक्रम से निर्दिष्ट कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के रहते हुए जीव उक्त सम्यग्दर्शन को नहीं प्राप्त करता है । किन्तु जब वह उन कर्मों की अन्त:कोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थिति को बांधता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करने योग्य होता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार और मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय को उपशमाकर उस प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। इसलिए यहाँ प्रथमतः दर्शनमोहनीय की उपशामन विधि का विवेचन किया गया है । इस प्रसंग में वहां कौन जीव उसके उपशमाने के योग्य होता है तथा वह किन अवस्थाओं में उसे उपशमाता है, इत्यादि का जी मूल ग्रन्थ में सूत्र रूप से विचार किया गया है इसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने विशेष रूप से कर दिया है। यह उपशमसम्यक्त्व चिरस्थायी नहीं है, अन्तर्मुहर्त में वह विनष्ट होने वाला है।' ___आगे वहाँ मुक्ति के साक्षात् साधनभूत क्षायिक सम्यक्त्व का विचार करते हुए उसके रोधक दर्शनमोहनीय का क्षय कहाँ, कब और किसके पादमूल में किया जाता है, का विचार किया गया है। धवलाकार ने इसका विशदीकरण भी विशेष रूप से किया है ।२
इस प्रकार सम्यक्त्व की प्ररूपणा करके, तत्पश्चात् इसी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका में जीव सम्यक्त्वपूर्वक चारित्र और सम्पूर्ण चारित्र को किस प्रकार से प्राप्त करता है, इसका मूल ग्रन्थकार द्वारा संक्षेप में दिशावबोध कराया गया है । उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने
१. सूत्र १,६-८,१-१० (पु० ६, पृ० २०३-४३) २. सूत्र १,६-८,११-१३ (पु० ६, पृ० २४३-६६)
२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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