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________________ उस प्रसंग में संयमासंयम तथा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक प्रकलचारित्र के इन तीन भेदों के निर्देशपूर्वक उनमें से प्रत्येक की प्राप्ति के विधान की पृथक्-पृथक् विस्तार से प्ररूपणा की है ।' इसी प्रसंग में उन्होंने जीव किस क्रम से उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि पर आरूढ होता है तथा वहाँ किस क्रम से वह विविध कर्मप्रकृतियों को उपशमाता व क्षय करता है, इसका विचार भी बहुत विस्तार से किया है । इसी सिलसिले में वहाँ उपशमश्रेणि पर आरूढ हुआ संयत कालक्षय अथवा भवक्षय से उस उपशमश्रेणि से पतित होकर किस क्रम से नीचे आता है, इसका भी विस्तार से विवेचन किया गया है। वही संयत मुक्ति की अनन्य साधनभूत दूसरी क्षपकश्रेणि पर आरूढ होकर जीव के सम्यग्दर्शनादि गुणों के विघातक कर्मों का किस क्रम से क्षय करता हुआ क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त होता है और फिर सयोगकेवली होकर वहाँ जीवन्मुक्त अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण रहता हुआ अयोगकेवली हो जाता है और अन्त में शेष अघातिया कर्मों को भी निर्मूल करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है -- इस सबका विशद विवेचन धवलाकार ने किया है । " यह जो सम्यक्त्व व चारित्र की प्ररूपणा प्रथमतः षट्खण्डागम के जीवस्थान खण्डगत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में तथा विशेषकर इस चूलिका में की गयी है वह आत्महितैषी जनों के लिए मननीय है । उनके विषय में जिस प्रकार का स्पष्टीकरण यहाँ किया गया है वह अन्यत्र द्रव्यानुयोगप्रधान ग्रन्थों में प्रायः दुर्लभ रहेगा । सम्यग्ज्ञान इस प्रकार सम्यक्त्व व चारित्र की प्ररूपणा कर देने पर पूर्वोल्लिखित रत्नत्रय में सम्यग् - ज्ञान शेष रह जाता है, जिसकी प्ररूपणा भी यथाप्रसंग प्रकृत षट्खण्डागम में विस्तार से की गयी है । यह ध्यातव्य है कि सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भूत हो जाने पर उसका ज्ञान, पूर्व में जो मिथ्या था, उसी समय सम्यग्रूपता को प्राप्त कर लेता है । वह यदि अल्प मात्रा में भी हो तो भी वह केवलज्ञानपूर्वक प्राप्त होनेवाली मुक्ति की प्राप्ति में बाधक नहीं होता — जैसे तुषमास के घोषक शिवभूति का ज्ञान । इसके विपरीत भव्यसेन मुनि बारह अंग और चौदह पूर्वस्वरूप समस्त श्रुत का पारंगत होकर भी भावश्रमणरूपता को प्राप्त नहीं हुआ - मोक्षमार्ग से बहिर्भूत द्रव्यलिंगी मुनि ही रहा । ८, १३-१४ (५०६, पृ० २६६-३४२) १. सूत्र १, २. सूत्र १, ८, १५-१६ ( पु० ६, पृ० ३४२-४१८) ३. धवला पु० १, पृ० २१०-१४ ( उपशामनविधि ) तथा पृ० २१५-२५ ( क्षपण विधि ) ४. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ३२-३४ ५. तुस - मासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य विभूईकेवलणाणी फुडं जाओ । - भावप्राभृत ५३ ६. अंगाई दस य दुणि य चउदसपुव्वाई सयलसुदणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसमणत्तणं पत्तो ॥ - भावप्राभृत ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रस्तावना / २७ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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