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________________ प्रकृत सम्यग्ज्ञान की प्ररूपणा प्रथमतः जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत 'सत्प्ररूपणा' अनुयोगद्वार में ज्ञानमार्गणा के प्रसंग में की जा चुकी है (सूत्र १,१,११५-२२; पु० १५० ३५३-६८) । तत्पश्चात 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में नोआगमकर्मद्रव्यप्रकृति के प्रसंग में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकृतिअनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों के भेद-प्रभेदों को प्रकट किया गया है । सर्वप्रथम वहाँ ज्ञानावरणीय के पाँच भेदों का निर्देश करते हुए उनमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय के ४,२४,२८,३२,४८,१४४,१६८, १९२,२८८,३३६ और ३८४ भेदों का निर्देश किया गया है (सूत्र ५,५,१५-३५) । ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के द्वारा आवत किये जानेवाले आभिनिबोधिकज्ञान के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की है। तत्पश्चात् वहाँ इसी पद्धति से श्रतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन ज्ञानभेदों की भी प्ररूपणा को गई है।' अन्त में क्रमप्राप्त केवलज्ञान व उसके विषय के सम्बन्ध में विशदतापूर्वक विचार किया गया है। ___इसके पूर्व 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए जो वहाँ विस्तृत मंगल किया गया है (सूत्र १-४४). उसमें अनेक विशिष्ट ऋद्धिधरों को नमस्कार किया है। उस प्रसंग में धवलाकार द्वारा अवधिज्ञान, परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार मोक्ष के मार्गभूत उक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय में विशद प्रकाश डालनेवाले प्रस्तुत षट्खण्डागम को मोक्षशास्त्र ही समझना चाहिए। अन्य प्रासंगिक विषय १. मोक्ष का अर्थ कर्म के बन्धन से छूटना है। इसके लिए कर्म की बन्धव्यवस्था को भी समझ लेना आवश्यक हो जाता है। इसे हृदयंगम करते हुए इसके तीसरे खण्डस्वरूप बन्धस्वामित्वविचय में ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृतियों में कौन प्रकृति किस गुणस्थान से लेकर आगे किस गुणस्थान तक बंधती है, इसका मूल ग्रन्थ में ही विशद विचार किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण धवला में भी यथावसर विशेष रूप से किया गया है (पु०८)। इसके पूर्व दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के प्रारम्भ में बन्धक सत्प्ररूपणा में भी मूल ग्रन्थकार द्वारा बन्धक-अबन्धक जीवों का विवेचन किया गया है (पु० ७)। इसी खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो प्रथम 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' अनुयोगद्वार है उसमें गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवों को नर-नारक आदि १. धवला पु० १३, पृ० २१६-४४ आभिनिबोधिकज्ञान; पृ० २४५-८६ श्रुतज्ञान; पृ० २८६. ३२८ अवधिज्ञान; पृ० ३२८-४४ मनःपर्ययज्ञान । २. सूत्र ७६-८२; धवला पु० १३, पृ० ३४५-५३ ३. यथा--अवधिज्ञान पु० ६, पृ० १२-४१, परमावधि पृ० ४१-४७, सर्वावधि पृ० ४७-५१ ____ व ऋजु-विपुलमतिमनःपर्यय पृ० ६२-६६ ४. धवलाकार ने मंगल, निमित्त व हेतु आदि छह की प्ररूपणा करते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ की ___ रचना का हेतु मोक्ष ही निर्दिष्ट किया है-हेतुर्मोक्षः ।-धवला पु० १, पृ० ६० २८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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