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________________ को पाकर उपद्रव छोड़ देता है और उस पर रम जाता है उसी प्रकार स्वच्छन्दता से इन्द्रिय-विषयों की ओर दौड़ने वाले चंचल मन को अनेकान्तात्मक पदार्थों के प्ररूपक, अनेक नयरूप शाखाओं से सुशोभित श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष पर रमाना चाहिए— उसके अभ्यास में संलग्न करना चाहिए, जिसके आश्रय से वह कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त हो सके ।' अधिक क्या कहा जाय, त्रिलोकपूज्य उस तीर्थंकर पद की प्राप्ति का कारण भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता' या अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही है । षट्खण्डागम की महत्ता जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, प्रस्तुत षट्खण्डागम एक प्रमाणभूत परमागमग्रन्थ है | आचार्य अकलंकदेव के द्वारा स्थान स्थान पर जिस ढंग से उसके महत्त्व को प्रतिष्ठापित किया गया है उससे भी उसकी परमागमरूपता व उपादेयता सिद्ध होती है । उन्होंने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में यथाप्रसंग उसके अन्तर्गत खण्ड व अनुयोगद्वार आदि का उल्लेख इस प्रकार किया है— (१) कुत: ? आगमे प्रसिद्धे । आगमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेशवचने... | - त०वा० १,२१,६ तथा ष०ख० सूत्र १,१, २४ व २५, २८ आदि । (२) एवं ह्या उक्तं सासादन सम्यग्दृष्टिरिति को भावः ? पारिणामिको भाव इति । - त०वा० २,७,११ व ष० ख० सूत्र १,७, ३ (३) एवं हि समयोऽवस्थितः सत्प्ररूपणायां कायानुवादे त्रसानां द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगिकेवलिन इति । - त० वा० २,१२,५ और ष०ख० सूत्र १,१, ४४ (४) आह चोदक: -- जीवस्थाने योगभंगे ? न विरोधः, अभिप्रायकत्वाज्जीवस्थाने सर्वदेव-नारकाणां । त०वा० २,४६, ८ व ष० ख० सूत्र १,१, ५७ (५) एवं ह्य ुक्तमार्षे वर्गणायां बन्धविधाने नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिससिकबन्धनिर्देशः प्रोक्तः । - त०वा० ५,३६,४ और प०ख० सूत्र ५, ६, ३३-३४ आचार्य पूज्यपाद ने 'तत्त्वार्थसूत्र' के अन्तर्गत सूत्र १-८ की व्याख्या में षट्खण्डागम परमागम के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के प्रायः सभी सूत्रों को छायानुवाद के रूप में आत्मसात् किया है । आ० पूज्यपाद भट्टाकलंकदेव के पूर्ववर्ती हैं। उनके तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) गत वाक्यों को अकलंकदेव ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में समाविष्ट कर उन्हें विशद किया है । आ० पूज्यपाद ने षट्खण्डागम जैसे परमागम को प्रमाण मानकर यह भी कहा है "स्वनिमित्तस्तावदनन्तानाम गुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । " - स०सि० ५-७ इस प्रकार आचार्य पूज्यपाद और भट्टाकलंकदेव ने प्रकृत षट्खण्डागम को विशेष महत्त्व १. आत्मानुशासन १७० २. ष० ख० सूत्र ४१ (१०८) ३. तत्त्वार्थसूत्र ६-२४ ४. षट्खण्डागम के इस सूत्र (१,१, ४४ ) का संकेत सर्वार्थसिद्धि (२-१२) में भी 'आगम' के नाम से ही किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रस्तावना / २५ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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