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________________ उसमें अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है। बादर-निगोद जीव और सूक्ष्म-निगोद जीव परस्परबद्ध (समवेत) और स्पष्ट होकर रहते हैं। वे अनन्त जीव हैं जो मूली, थूहर और अदरख आदि के रूप में रहते हैं । अनन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने कभी सपर्याय को नहीं प्राप्त किया है । वे संक्लेश की अधिकता से कलुषित रहते हुए निगोद स्थान को नहीं छोड़ते हैं । एक निगोद शरीर में अवस्थित द्रव्यप्रमाण से देखे गये (सर्वज्ञ के द्वारा द्रव्यप्रमाण से निर्दिष्ट) जीव सब ही अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणे हैं (११६-२८)। एक ही जीव का जो शरीर होता है वह प्रत्येक-शरीर कहलाता है, इस प्रकार के प्रत्येकशरीर से संयुक्त जीवों को प्रत्येक शरीर कहा जाता है । बहुत जीवों का जो एक शरीर होता है उसका नाम साधारण शरीर है, उस साधारण शरीर में जो जीव रहते हैं वे साधारणशरीर कहलाते हैं । अथवा जिन जीवों का प्रत्येक (पृथग्भूत) शरीर होता है उन्हें प्रत्येकशरीर समझना चाहिए। इनमें जो साधारण शरीरवाले जीव हैं वे नियम से वनस्पतिकायिक होते हैं। वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों की भिन्नता- इसका अभिप्राय यह हुआ कि सब निगोद जीव वनस्पतिकाय के अन्तर्गत हैं, उससे बाह्य नहीं हैं । परन्तु प्रस्तुत षट्खण्डागम के ही द्वितीय खण्ड क्षुद्रकबन्ध में उन्हें वनस्पतिकायिकों से पृथग्भूत सूचित किया गया है। इस क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है। इनमें यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। कायमार्गणा में उस अल्पबहत्व की प्ररूपणा चार प्रकार से की गई है। वहाँ इस प्रसंग में सूत्र ५८-५६, ७४-७५ और १०५-६ में वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों को विशेष अधिक दिखलाया गया है। वहाँ सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका की गई है कि यह सूत्र निरर्थक है, क्योंकि वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव पृथक् नहीं पाये जाते । अन्यत्र वनस्पतिकायिकों से पृथग्भुत पृथिवीकायिकादियों में निगोद जीव नहीं हैं, ऐसा आचार्यों का उपदेश भी है। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि तुम्हारा कहना सत्य हो सकता है, क्योंकि बहुत से सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के आगे निगोद पद नहीं पाया जाता, इसके विपरीत वहाँ निगोद जीवों के आगे वनस्पतिकायिकों का पाठ पाया जाता है तथा वह बहुत से आचार्यों को सम्मत भी है। किन्तु यह सत्र ही नहीं है, ऐसा अवधारण करना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा तो वह कह सकता है जो चौदह पूर्वो का धारक अथवा केवलज्ञानी हो । परन्तु वर्तमानकाल में वे नहीं हैं, और न उनके पास सुनकर आये हुए विशिष्ट ज्ञानीजन भी इस समय पाये जाते हैं । इसलिए इसे ठप्प करके जो आचार्य सूत्र की आसादना से भयभीत हैं उन्हें दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए। इस पर वहाँ पुनः यह शंका की गई है कि निगोद जीवों के आगे वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों के प्रमाण से विशेष अधिक हैं, परन्तु वनस्पतिकायिकों १. वणप्फदिकाइया विसेसाहिया। णिगोदजीवा विसेसाहिया। सूत्र ५८-५६, ७४-७५ व १०५-६ (पु० ७, पृ० ५३५, ५३६ और ५४६) मूलमन्धगत विषय का परिचय | १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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