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________________ नुगम आदि बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है ।" प्रसंग के अन्त में धवलाकार ने कहा है कि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से तेईस वर्गणाओं की प्ररूपणा करने पर अभ्यन्तर वर्गणा समाप्त हो जाती है । पूर्व में धवलाकार ने वर्गणा के अभ्यन्तर वर्गणा और बाह्य वर्गणा इन दो भेदों का निर्देश करते हुए कहा था कि जो पाँच शरीरों की बाह्य वर्गणा है उसका कथन आगे चार अनुयोगद्वारों के श्राश्रय से करेंगे । बाह्य वर्गणा 'आगे इस बाह्य वर्गणा की अन्य प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसकी प्ररूपणा में इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है—शरीरीशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा ( ११७-१८ ) । शरीरी का अर्थ जीव है । जहाँ पर जीवों के प्रत्येक और साधारण इन दो प्रकार के शरीरों की अथवा प्रत्येक व साधारण लक्षणवाले जीवों के इन शरीरों की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीरीशरीर प्ररूपणा है । जिसमें पाँचों शरीरों के प्रदेशप्रमाण, उन प्रदेशों के निषेकक्रम और प्रदेशों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीर प्ररूपणा है । जहाँ पर पाँचों शरीरों के विस्रसोपचय सम्बन्ध के कारण भूत स्निग्ध और रूक्ष गुणों की तथा औदारिक आदि पाँच शरीरगत परमाणुविषयक अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा है । जीव से रहित हुए उन्हीं परमाणुओं के विस्रसोपचय की प्ररूपणा जहाँ की जाती है उसका नाम विस्रसोपचय प्ररूपणा है । १. शरीरीशरीरप्ररूपणा यहाँ सर्वप्रथम प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर इन दो प्रकार के जीवों के अस्तित्व को प्रकट किया गया है । आगे कहा गया है कि जो साधारण शरीर जीव हैं वे नियम से वनस्पतिकायिक ही होते हैं, शेष जीव प्रत्येकशरीर होते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि वनस्पतिकायिक साधारण शरीर भी होते हैं और प्रत्येकशरीर भी, किन्तु शेष जीव प्रत्येकशरीर ही होते हैं। आगे साधारण जीवों के लक्षण को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जिनका आहार - शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण – तथा आन-पान (उच्छ्वास व निःश्वास) का ग्रहण साधारण (सामान्य) होता है वे साधारण जीव कहलाते हैं। उनका यह साधारण लक्षण कहा गया है । एक जीव का अनुग्रहण - परमाणु पुद्गलों का ग्रहण - - बहुत से साधारण जीवों का होता है तथा बहुतों का अनुग्रहण इस एक जीव का भी होता है। एक साथ उत्पन्न होनेवाले उन जीवों के शरीर की निष्पत्ति एक साथ होती है तथा अनुग्रहण और उच्छ्वासनिःश्वास भी उनका साथ- साथ होता है । जिस शरीर में स्थित एक जीव मरता है उसमें स्थित अनन्त जीवों का मरण होता है । जिस निगोदशरीर में एक जीव उत्पन्न होता है १. धवला पु० १४, पृ० १३५-२२३ १२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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