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विद्याएँ, जिनमें एक अधिक अक्षर वाली और दूसरी हीन अक्षर वाली थी, दीं और कहा कि इन्हें षष्ठोपवास के साथ सिद्ध करो । तदनुसार विद्याओं के सिद्ध करने पर उन्होंने पृथक्-पृथक् दो विद्यादेवताओं को देखा जिनमें एक बड़े दांतों वाली और दूसरी कानी थी 1
इस पर दोनों ने विचार किया कि देवताओं का स्वरूप ऐसा तो नहीं होता। यह विचार करते हुए मंत्र व व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में छूटे हुए अक्षर को जोड़कर तथा अधिक अक्षर वाली विद्या में से अधिक अक्षर को निकालकर उन्हें पुनः जपा | तब उन्होंने अपने स्वाभाविक रूप में उपस्थित विद्याओं को देखा। अन्त में उन्होंने विनयपूर्वक धरसेन भट्टारक के पास जाकर इस घटना के विषय में निवेदन किया । इस पर अतिशय संतोष को प्राप्त हुए धरसेनाचार्य ने सौम्य तिथि, नक्षत्र, और वार में ग्रन्थ को पढ़ाना आरम्भ कर दिया । इस प्रकार क्रमशः व्याख्यान करने से आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्वाह्न में ग्रन्थ समाप्त हो गया । विनयपूर्वक ग्रन्थ के समाप्त करने से संतुष्ट हुए भूतों ने उनमें से एक की पुष्प - बलि आदि से महती पूजा की। यह देखकर भट्टारक धरसेन ने उसका नाम भूतबलि रखखा । दूसरे की पूजा करते हुए उसके अस्त-व्यस्त दाँतों की पंक्ति को हटाकर समान कर दिया। तब भट्टारक ने उसका नाम पुष्पदन्त किया ।'
ग्रन्थ के समाप्त हो जाने पर धरसेनाचार्य ने उन्हें उसी दिन वापिस भेज दिया। तब उन दोनों ने गुरु का वचन अनुल्लंघनीय होता है, यह जानकर वहाँ से आते हुए अंकुलेश्वर में वर्षा - काल किया । पश्चात् योग को समाप्त कर पुष्पदन्ताचार्य जिनपालित को देखकर वनवास देश को गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश को चले गये ।
धरसेनाचार्य ने ग्रन्थ समाप्त होते ही उन्हें वहाँ से क्यों भेज दिया, इस विषय में धवला में कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है । पर इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में कहा गया है कि धरसेनाचार्य
अपनी मृत्यु को निकट जान उससे उन दोनों को क्लेश न हो, इस विचार से उन्हें हितकर वचनों के द्वारा आश्वस्त करते हुए ग्रन्थ- समाप्ति के दूसरे दिन ही वहाँ से भेज दिया । यहीं पर आगे उक्त श्रुतावतार में जिनपालित को आचार्य पुष्पदन्त का भानजा निर्दिष्ट किया गया है ।
वनवास देश में जाकर आ० पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस सूत्रों (बीस प्ररूपणाओं से सम्बद्ध सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों ) की रचना की, तथा उन्हें जिनालित को पढ़ाकर उन सूत्रों के साथ भगवान् भूतबलि के पास भेजा । भूतबलि भगवान् ने उन सूत्रों को देखकर व निपालित से उन्हें अल्पायु जानकर 'महाकर्म प्रकृतिप्राभृत का व्युच्छेद हो जाने वाला है' इस विचार से 'द्रव्यप्रमाणानुगम' को आदि करके आगे के ग्रन्थ की रचना की । इस प्रकार इस खण्ड-सिद्धान्त की अपेक्षा उसके कर्ता भूतबलि और पुष्पदन्त कहे जाते हैं । 3
धवलाकार के इस विवरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य पुष्पदन्त ने सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में केवल सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वार की ही रचना की है । यद्यपि धवला में 'वीसदि सुत्ताणि करिय' इतना ही संक्षेप में कहा गया है, पर उससे उनका अभिप्राय
१. धवला पु० १, पृ० ६७-७१ २. इन्द्रनन्दि - श्रुतावतार १२६-३४
३. धवला पु० १, पृ० ७१
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षट्खण्डागम: पीठिका / ५
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