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________________ गुणस्थान व जीवसमास आदि बीस प्ररूपणाओं का रहा है।' आगे द्रव्य प्रमाणानुगम से प्रारम्भ करके समस्त जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के रचयिता भगवान् भूतबलि हैं । " श्रुतपंचमी की प्रसिद्धि इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के समाप्त होने पर उसे असद्भावस्थापना से पुस्तकों में आरोपित करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चातुर्वर्ण्य संघ के साथ उन पुस्तक रूप उपकरणों के आश्रय से विधिपूर्वक पूजा की गयी । तबसे यह तिथि श्रुतपंचमी के रूप में प्रसिद्ध हुई, जो आज भी प्रचार में आ रही है । उस दिन प्रबुद्ध जैन जनता उक्त षट्खण्डागमादि ग्रन्थों को स्थापित कर भक्तिभाव से सरस्वती पूजा आदि करती है । आगे उक्त श्रुतावतार में यह भी कहा गया है कि तत्पश्चात् आ० भूतबलि ने पुस्तक के रूप में उन छह खण्डों को जिनपालित के साथ पुष्पदन्त गुरु के पास भेजा । उस समय पुष्पदन्त गुरु ने भी जिनपालित के हाथ में स्थित षट्खण्डागम पुस्तक को देखकर सहर्ष विचार किया कि जिस कार्य को मैंने सोचा था वह पूरा हो गया है। इस प्रकार श्रुतानुराग के वश पुष्पदन्ताचार्य ने भी विधिपूर्वक चातुर्वर्ण्य संघ के साथ श्रुतपंचमी के दिन गन्धाक्षतादि के द्वारा पूर्ववत् सिद्धान्त-पुस्तक की महती पूजा की । * श्रुतावतार के इस उल्लेख से यह निश्चित होता है कि प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना के समाप्त होने तक आचार्य पुष्पदन्त जीवित थे । आ० पुष्पदन्त विरचित सत्प्ररूपणासूत्रों के साथ निपाति के भूतबलि भट्टारक के पास पहुँचने पर उन्हें पुष्पदन्त के अल्पायु होने का बोध ( १ ) इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार में इसे स्पष्ट भी किया गया है : वाच्छन् गुणजीवादिक-विंशतिविधसूत्र-सत्प्ररूपणया । युक्तं जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत् सम्यक् ।। १३५।। २. (क) संपदि चोद्दसण्हं जीवसमाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबीeng भूतबलिया इरियो सुत्तमाह । - द्रव्यप्रमाणानुगम पु० ३, पृ० १ (ख) उवरि उच्चमाणेसु तिसु विखंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खण्डाणं । कुदो ? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूतबलि - भारओ गंथस्स पारभदि । पु० ६, पृ० १०५ (ग) तदो भूतबलिभडारएण सुद-णईपवाहवोच्छेदभीएण भविलोगाणुग्गहट्ठ महाकम्पsिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । पु० ६, पृ० १३३ (घ) धवला पु० १४, पृ० ५६४ । ३. ज्येष्ठा - सितपक्ष पञ्चम्या चातुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ।। १४३ ।। श्रुतपंचमीति तेन प्रख्याति तिथिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ।। १४४ ।। ४. इन्द्रनन्दि - श्रुतावतार १४५-१४८ ६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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