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________________ लोहार्य (सुधर्म) और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए । पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच अविच्छिन्न परम्परा से चौदह पूर्वो के धारक (श्रुतकेवली) हुए । तदनन्तर उसी अविच्छिन्न परम्परा से विशाखाचार्य आदि ग्यारह आचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वो के धारक हुए। शेष चार पूर्वो के वे एकदेश के धारक थे। अनन्तर नक्षत्राचार्य आदि पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के परिपूर्ण और चौदह पूर्वो के एकदेश के धारक हुए । तत्पश्चात् सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य उसी अविच्छिन्न परम्परा से आचारांग के पूर्ण ज्ञाता तथा शेष अंग-पूर्वो के वे एक देश के धारक हुए । इस प्रकार श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होने पर सब अंग-पूर्वो का एकदेश उसी अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।' सौराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरिनगर पटन की चन्द्रगुफा में स्थित वे आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे । उन्होंने उक्त क्रम से उत्तरोत्तर.क्षीण होते श्रुत के प्रवाह को देखकर जाना कि इस समय उन्हें जो अंग-पूर्वो का एकदेश प्राप्त है वह भी कालान्तर में अस्तंगत हो जानेवाला है। इस भय से उन्होंने प्रवचनवत्सलता के वश महिमा नामक नगरी में (अथवा किसी महत्त्वपूर्ण महोत्सव में) सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक लेख भेजा । लेख में स्थित धरसेनाचार्य के वचन का अभिप्राय जानकर उन आचार्यों ने भी आन्ध्र देश में अवस्थित वेण्णा नदी के तट से ऐसे दो साधुओं को भेज दिया जो ग्रहण-धारण में समर्थ, विनीत, शीलमाला के धारक, गुरुजनों के द्वारा भेजे जाने से संतुष्ट, देश-कुल-जाति से शुद्ध और समस्त कलाओं में पारंगत थे। तब धरसेनाचार्य के पास जाते समय उन दोनों ने तीन बार उन आचार्यों से पूछकर वहाँ से प्रस्थान किया। जिस दिन वे वहाँ पहुँचनेवाले थे उस दिन आचार्य धरसेन ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में तीन प्रदक्षिणा देकर अपने पांवों में गिरते हुए उत्तम लक्षणों से संयुक्त दो धवलवर्ण बैलों को देखा । इस प्रकार के स्वप्न को देखकर सन्तोष को प्राप्त हुए धरसेनाचार्य के मुख से सहसा 'जयउ सुयदेवदा' यह वाक्य निकला। उसी दिन वे दोनों धरसेनाचार्य के पास जा पहुँचे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने धरसेन भगवान् की वन्दना आदि करके दो दिन विताये। तत्पश्चात् तीसरे दिन विनयपूर्वक धरसेनाचार्य के पास जाकर उन्होंने निवेदन किया-भगवन् ! अमुक कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं। तब धरसेन भट्टारक ने 'बहुत अच्छा, कल्याण हो' यह कहकर उन्हें आश्वस्त किया। तत्पश्चात् धरसेन ने यथेच्छ प्रवृत्ति करनेवालों को विद्या का दान संसार के भय को बढ़ाने वाला होता है। यह सोचकर स्वप्न के देखने से उनके विषय में विश्वस्त होते हुए भी उनकी परीक्षा करना उचित समझा। इसके लिए उन्होंने उनके लिए दो १. धवला पु० १, पृ० ६०-६७; यही प्ररूपणा आगे वेदना खण्ड (पु० ६ पृ० १०७-३३) में पुनः कुछ विस्तृत रूप में की गयो है, वहाँ केवली व श्रुतकेवलियों आदि के समय का भी निर्देश किया गया है। २. विस्समिदो तद्दिवसं मीमंसित्ता णिवेदयदि गणिणो। विणएणागमकज्ज विदिए तदिए व दिवसम्मि ।। मूलाचार ४-४४ (आगे-पीछे की भी कुछ गाथाएँ द्रष्टव्य हैं) ३. .'इदिवयणादो जहा छंदाईणं विज्जादाणं संसारभयवद्धणं ।-धवला पु० १, पृ० ७० ४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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