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हिंसा-अहिंसा का विचार करते हुए शुद्ध नय से अन्तरंग हिंसा को ही यथार्थ हिंसा सिद्ध किया गया है। इसकी पुष्टि में 'उक्तं च' कहकर वहाँ तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है। उनमें प्रथम गाथा प्रवचनसार की और आगे की दो गाथाएँ मूलाचार की हैं।
२५. युक्त्यनुशासन-जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में धवलाकार ने 'द्रव्य-प्रमाणानुगम' के शब्दार्थ पर विचार किया है। इस प्रसंग में 'द्रव्य' और 'प्रमाण' शब्दों में अनेक समासों के आश्रय से पारस्परिक सम्बन्ध का विचार करते हुए धवला में कहा गया है कि संख्या (प्रमाण) द्रव्य की एक पर्याय है, इसलिए दोनों (द्रव्य और प्रमाण) में एकता या अभेद नहीं हो सकता है । इस प्रकार उनमें भेद के रहने पर भी द्रव्य की प्ररूपणा उसके गुणों के द्वारा ही होती है, इसके बिना द्रव्य की प्ररूपणा का अन्य कोई उपाय नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक "नानात्मतामप्रजाहत्तदेक" पद्य को उद्धृत किया है । यह पद्य आ० समन्तभद्र द्वारा विरचित युक्त्यनुशासन में यथास्थान अवस्थित है।
२६. लघीयस्त्रय - उपर्युक्त द्रव्यप्रमाणानुगम में मिथ्यादृष्टियों के प्रमाणस्वरूप अनेक प्रकार के अनन्त को स्पष्ट करते हुए धवला में उनमें से गणनानन्त को अधिकृत कहा गया है। इस पर वहाँ शंका उठी है कि यदि गणनानन्त प्रकृत है तो अनन्त के नामानन्त आदि अन्य दस भेदों की प्ररूपणा यहाँ किसलिए की जा रही है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह अप्रकृत के. निराकरण व प्रकृत की प्ररूपणा करने, संशय का निवारण करने और तत्त्व का निश्चय करने के लिए की जा रही है । इसी प्रसंग में आगे उन्होंने यह भी कहा है कि अथवा निक्षेप से विशिष्ट अर्थ को प्ररूपणा वक्ता को उन्मार्ग से बचाती है, इसलिए निक्षेप किया जाता है। आगे 'तथा चोक्तं' ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने "ज्ञानप्रमाणमित्याहुः' इत्यादि श्लोक को उद्धत किया है। यह श्लोक भट्टाकलंकदेव-विरचित लघीयस्त्रय में उपलब्ध होता है । विशेष इतना है कि यहाँ '-मात्मादेः' के स्थान में '-मित्याहुः' और 'इष्यते' के स्थान में 'उच्यते' पाठभेद है।
२७. लोकविभाग - जीवस्थान-कालानुगम में नोआगम-भावकाल के अन्तर्गत समय व आवली आदि के स्वरूप को प्रकट करते हुए उस प्रसंग में 'मुहूर्तानां नामानि' इस सूचना के साथ धवला में ये चार श्लोक उद्धृत किये गये हैं
रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च ततः सारभटोऽपि च । दैत्यो वैरोचनश्चान्यो वैश्वदेवोऽभिजित्तथा ।। रोहणो बलनामा विजयो नैऋतोऽपि च । वारुणश्चार्ययामा स्युर्भाग्यः पंचदशो दिने । सावित्रो धुर्यसंज्ञश्च दात्रको यम एव च । वायुर्हताशनो भानुवैजयंतोऽष्टमो निशि ।।
१. धवला, पृ० १४, पृ० ८८-८६ तथा प्रसा० गाथा ३-१७ व मूलाचार गाथा ५,१३१-३२ २. धवला, पु० ३, पृ० ६ और युक्त्यनु० ५० ३. देखिए धवला, पु० ३, पृ० १७-१८ और लघीयस्त्रय ६-२
अनिदिष्टनाम ग्रन्थ/६३६
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