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________________ पर "पांचवीं पृथिवी तक सिंह और छठी पृथिवी तक स्त्रियां जाती हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध प्राप्त होता है।' वह गाथासूत्र मूलाचार (१२-११३) में उपलब्ध होता है। धवलाकार ने सूत्र के रूप में उल्लेख करके उसको महत्त्व दिया है । सम्भव है वह उसके पूर्व अन्यत्र भी कहीं रहा हो। (४) 'कर्म' अनुयोगद्वार में प्रायश्चित्त के दस भेदों का उल्लेख करते हुए धवला में 'एत्थ गाहा' कहकर "आलोयण-पडिकमणे" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है। यह गाथा मूलाचार में उपलब्ध होती है। (५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म के भेदों के प्ररूपक सूत्र (५,५,१२०) की व्याख्या में ऊर्ध्वकपाटच्छेदन से सम्बद्ध गणित-प्रक्रिया के प्रसंग में धवलाकार ने दो भिन्न मतों का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि यहाँ उपदेश प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, दूसरा असत्य है। इसका निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्र-सिद्ध हैं, क्योंकि आगे दोनों ही उपदेशों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। ___ इस पर वहां यह शंका की गयी है कि विरुद्ध दो अर्थों की प्ररूपणा को सूत्र कसे कहा जा सकता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह सत्य है, जो सूत्र होता है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपक होता है । किन्तु यह सूत्र नहीं है। सूत्र के समान होने से उसे उपचार से सूत्र स्वीकार किया गया है । इस प्रसंग में सूत्र का स्वरूप क्या है, यह पूछने पर . उसके स्पष्टीकरण में वहाँ यह गाथा उद्धृत की गयी है-- सुत्तं गणधरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुटिवकहियं च ।। इसी प्रसंग में आगे धवलाकार ने कहा है कि भूतबलि भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी भी हैं जिससे यह सूत्र हो सके। (६) 'बन्धन' अनयोगद्वार में बादर-निगोद वर्गणाओं के प्रसंग में धवला में क्षीणकषाय के प्रथमादि समयों में मरनेवाले निगोद जीवों की मरणसंख्या के क्रम की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रसंग में वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि वहाँ ये निगोदजीव क्यों मरते हैं। उत्तर में यह स्पष्ट किया गया है कि ध्यान के द्वारा निगोद जीवों की उत्पत्ति और स्थिति के कारणों का निरोध हो जाने से वे क्षीणकषाय के मरण को प्राप्त होते हैं। आगे वहाँ पुनः यह शंका की गयी है कि ध्यान के द्वारा अनन्तानन्त जीवराशि का विघात करनेवालों को मुक्ति कैसे प्राप्त होती है। उत्तर में कहा गया है कि वह उन्हें प्रमाद से रहित हो जाने के कारण प्राप्त होती है। साथ ही, वहाँ प्रमाद के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि पांच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों का तथा समस्त कषायों के अभाव का नाम अप्रमाद है। आगे वहाँ १. आ० पंचमि त्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि ति। गच्छंति माधवी त्ति य मच्छा मणुया य ये पावा ।।-मूला० १२-१२३ २. धवला, पु० ११, पृ० ११३-१४ (ति०प० गाथा ८, ५५६-६१ भी द्रष्टव्य हैं)। ३. धवला, पु० १३, पृ० ६० और मूलाचार गा० ५-१६५ ४. धवला, पु० १३, पृ० ३८१ व मूलाचार गाथा ५-८० ६३८ / षदखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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