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________________ योगद्वार के अन्तर्गत ध्यान की प्ररूपणा में 'भगवती-आराधना' की १४ गाथाओं को धवला में उद्धृत किया है। (३) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में श्रुतज्ञान के पर्याय-शब्दों को स्पष्ट करते हुए धवला में 'प्रवचनीय' के प्रसंग में 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक "सज्झायं कुव्वंतो" आदि तीन गाथाएँ उद्धत की गयी हैं। उनमें पूर्व की दो गाथाएँ 'भगवती-आराधना' में १०४ व १०५ गाथासंख्या में उपलब्ध होती हैं। पूर्व की गाथा मलाचार (५-२१३) में भी उपलब्ध होती है। तीसरी 'जं अण्णाणी कम्म' आदि गाथा प्रवचनसार (३-३८) में उपलब्ध होती है।। २३. भावप्राभूत-जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन'. चूलिका में दर्शनावरणीय के प्रसंग में जीव के ज्ञान दर्शन लक्षण को प्रकट करते हुए धवलाकार ने आ० कुन्दकुन्द-विरचित 'भावप्राभृत' के 'एगो मे सस्सदो अप्पा' आदि पद्य को उद्धृत किया है ।। २४. मूलाचार-यह पीछे (पृ० ५७२ पर) कहा जा चुका है कि धवलाकार ने वट्टकराचार्य-विरचित मूलाचार का उल्लेख आचारांग के नाम से किया है। उन्होंने ग्रन्थनामनिर्देश के बिना भी उसकी कुछ गाथाओं को यथाप्रसंग धवला में उद्धृत किया है। उनमें कछ का उल्लेख 'ध्यानशतक' और 'भगवती आराधना' के प्रसंग में किया जा चुका है। अन्य कुछ इस प्रकार (१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में इन्द्रिय-मार्गणा के प्रसंग में श्रोत्र आदि इन्द्रियों के आकार को प्रकट करते हुए धवला में जो "जवणालिया मसूरी" आदि गाथा को उद्धृत किया गया है वह कुछ पाठभेद के साथ मूलाचार में उपलब्ध होती है। (२) यहीं पर आगे कायमार्गणा के प्रसंग में निगोद जीवों की विशेषता को प्रकट करने वाली चार गाथाएँ 'उक्तं च' के निर्देशपूर्वक उद्धृत की गयी हैं। ये चारों गाथाएं आगे मल षटखण्डागम में सूत्र के रूप में अवस्थित हैं। उनमें तीसरी (१४७) और चौथी (१४८) ये दो गाथाएँ मूलाचार में भी उपलब्ध होती हैं । (३) वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार में आयु कर्म की उत्कृष्ट वेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र ४,२,६,१२ की व्याख्या करते हुए धवलाकार द्वारा उसमें प्रयुक्त पदों की सफलता प्रकट की गयी है। इस प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो तीनों में से किसी भी वेद के साथ उत्कृष्ट आयु के बन्ध का अविरोध प्रकट किया गया है, उसमें सूत्रकार का अभिप्राय भाववेद से रहा है, क्योंकि इसके बिना स्त्रीवेद के साथ भी नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु स्त्रीवेद के साथ उत्कृष्ट नरकायु का बन्ध नहीं होता है, कारण यह कि स्त्रीवेद के साथ उत्कृष्ट आयुबन्ध के स्वीकार करने १. धवला, पु० १३, पृ० २८१ २. धवला, पु० ६, पृ० ६ और भावप्राभृत गाथा ५६ ३. धवला, पृ० १, पृ० २२६ और मलाचार गाथा १२-५० ४. ष०ख० मूत्र २२६,२३०,२३४ और २३३ (पु० १४) ५. धवला, पु० १ पृ० २७०-७१ और मूलाचार गाथा १२-१६३ व १२-१६२ अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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