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________________ जैसि आउसमाई णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ते अकयसमुग्धाया वच्चतियरे समुग्धाए ॥ कुछ पाठभेद के साथ ऐसी ही ये तीन गाथाएँ भगवती आराधना में इस प्रकार उपलब्ध होती हैं उक्कस्सएण छम्मासाउग से सम्मि केवली जादा । वच्चति समुग्धावं सेसा भज्जा समुग्धादे ।। २१०५ ।। जेसि आउसमाई णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ते अकयसमुग्धाया जिणा उवणमंति सेलेसि ॥। २१०६ ।। जेसि हवंति विसमाणि नामा-गोदाई वेयणीयाणि । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि ॥। २१०७॥ - भ० आ० २१०५-७ धवला में उद्धृत उपर्युक्त दो गाथाओं में प्रथम गाथा का और 'भगवती आराधना' की इस २१०५वीं गाथा का अभिप्राय सर्वथा समान है। यही नहीं, इन दोनों गाथाओं का चौथा चरण ( सेसा भज्जा समुग्धाए) शब्दों से भी समान है । धवला में उद्धृत दूसरी गाथा और 'भगवती आराधना' की २१०६वी गाथा शब्द वं अर्थ दोनों से समान है। विशेष इतना है कि चतुर्थ चरण दोनों का शब्दों से भिन्न होकर भी अर्थ की अपेक्षा समान ही है । कारण यह कि मुक्ति को प्राप्त करना और शैलेश्य ( अयोगिकेवली) अवस्था को प्राप्त करना, इसमें कुछ विशेष अन्तर नहीं है । 'भगवती आराधना' की जो तीसरी २१०७वीं गाथा है, वह धवला में उद्धृत प्रथम गाथा के और 'भ०आ०' की २१०५वीं गाथा के 'सेसा भज्जा समुग्धाए' इस चतुर्थ चरण के स्पष्टीकरण स्वरूप है । प्रकृत में शंकाकार का अभिप्राय यह रहा है कि यतिवृषभाचार्य के उपदेशानुसार जो धवला में यह कहा गया है कि सभी केवली समुद्घातपूर्वक मुक्ति को प्राप्त करते हैं, यह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध है । किन्तु उपर्युक्त गाथा में जो यह कहा गया है कि छह मास आयु के शेष रह जाने पर जिनके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वे तो समुद्घात को प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं, शेष के लिए कुछ नियम नहीं है - वे समुद्घात को करें और न भी करें; यह गाथोक्त अभिप्राय सूत्र के विरुद्ध नहीं है, इसलिए इस अभिप्राय को क्यों न ग्रहण किया जाय । इस पर धवलाकार ने कहा है कि उन गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत नहीं है, और यदि उनकी आगमरूपता निश्चित है तो उन्हें ही ग्रहण करना चाहिए । उन दो गाथाओं को धवलाकार ने सम्भवतः कुछ पाठभेद के साथ 'भगवती आराधना' से उद्धृत किया है, या फिर उससे भी प्राचीन किसी अन्य ग्रन्थ से लेकर उन्हें धवला में उद्धृत किया है । ' (२) १. इस सबके लिए देखिए धवला, पु० १, पृ० ३०१-४ ६३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International जैसा कि पीछे ध्यानशतक के प्रसंग में कहा जा चुका है, धवलाकार ने 'कर्म' अनु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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