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________________ मिवार्थः सिद्धसेनश्च विक्षोभो योग्य एव च । पुष्पदन्तः सुगन्धर्वो मुहूर्तोऽन्योऽरुणो मतः ।। ये चारों श्लोक वर्तमान लोकविभाग में कुछ थोड़े से पाठभेद के साथ उपलब्ध होते हैं।' सिंहसूरषि-विरचित यह 'लोकविभाग' धवला के बाद रचा गया है। इसका कारण यह है कि 'उक्तं चार्षे' कहकर उसमें जिनसेनाचार्य (हवीं शती) विरचित आदिपुराण के १५०-२०० श्लोकों का एक पूरा ही प्रकरण ग्रन्थ का अंग बना लिया गया हैं। इसके अतिरिक्त 'उक्तं च त्रिलोकसारे' इस सूचना के साथ आ० नेमिचन्द्र (११वीं शती) विरचित त्रिलोकसार की अनेक गाथाओं को वहां उद्धृत किया गया है। इस प्रकार से उपलब्ध लोकविभाग यद्यपि धवला के बाद लिखा गया है, फिर भी जैसी कि सूचना ग्रन्थकर्ता ने उसकी प्रशस्ति में की है, तदनुसार वह मुनि सर्वनन्दी द्वारा विरचित (शक सं० ३८०) शास्त्र के आधार से भाषा के परिवर्तनपूर्वक सिंहसूरर्षि के द्वारा रचा गया है। ___ इससे यह सम्भावना हो सकती है कि सर्वनन्दी-विरचित उस शास्त्र में ऐसी कुछ गाथाएं प्रादि रही हों जिनका इस लोकविभाग में संस्कृत श्लोकों में अनुवाद कर दिया गया हो। अथवा ज्योतिषविषयक किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ के आधार से उन श्लोकों में प्रथमतः दिन के १५ मुहूर्तों का और तत्पश्चात् रात्रि के १५ मुहूर्तों का निर्देश कर दिया गया हो। __ ज्योतिष्करण्डक की मलयगिरि सूरि-विरचित वृत्ति में उन मुहूर्तों के नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं १ रुद्र, २ श्रेयान्, ३ मित्र, ४ वायु, ५ सुपीत, ६ अभिचन्द्र, ७ महेन्द्र, ८ बलवान्, ६ पक्ष्म, १० बहुसत्य, ११ ईशान, १२ त्वष्टा, १३ भावितात्मा, १४ वैश्रवण, १५ वारुण, १६ आनन्द, १७ विजय, १८ विश्वासन, १६ प्राजापत्य, २० उपशम, २१ गान्धर्व, २२ अग्निवैश्य. २३ शतवषभ, २४ आतपवान, २५ असम, २६ अरुणवान्, २७ भोम, २८ वषभ, २६ सर्वार्थ और ३० राक्षस । प्रमाण के रूप में वहाँ 'उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ' इस निर्देश के साथ ये गाथाएँ उद्धत की गयी हैं रुद्दे सेए मित्ते वायू पीए तहेव अभिचंदे । माहिवं बलवं पम्हे बहुसच्चे चव ईसाणे ।। तट्ठव भावियप्प वेसवणे वारुणे य आणंदे । विजए य वीससेणे पायावच्चे तह य उवसमे य ।। १. धवला, पु० ४, पृ० ३१८-१६ और लोकविभाग श्लोक ६, १६७-२०० २. देखिए लो० वि०, पृ० ८७, श्लोक ६ आदि (विशेष जानकारी के लिए लो० वि० की प्रस्तावना पृ० ३५ की तालिका भी द्रष्टव्य है।) ३. देखिए लो०वि०, पृ० ४२,७३,८६ और १०१ ४. वही, पृ० २२५, श्लोक ५१-५३ ५. तिलोयपण्णत्ती में ७वा 'ज्योतिर्लोक' नाम का एक स्वतन्त्र महाधिकार है, किन्तु वहाँ ये मुहूर्तों के नाम नहीं उपलब्ध होते हैं । ६४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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