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को प्रधान करने पर मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यणी, इससे संचय को प्राप्त होने वाले सिद्ध और आनतादि देवराशि -इनके अल्पबहुत्व का कथन करने पर नोकृतिसंचित सबसे स्तोक, अवक्तव्यकृतिसंचित उनसे विशेष अधिक हैं, कृतिसंचित उनसे संख्यातगुणे हैं, ऐसा कहना चाहिए।' ___ इसका अभिप्राय यह हुआ कि पूर्वोक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा वहाँ सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुसार की गयी है।
(२) 'उपक्रम' अनुयोगद्वार में उपक्रम के बन्धनउपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामनाउपक्रम और विपरिणामउपक्रम इन चार भेदों का निर्देश करते हुए धवला में यह सूचना की गयी है कि इन चारों उपक्रमों की प्ररूपणा जिस प्रकार सत्कर्मप्रकृतिप्रामृत में की गयी है उसी प्रकार से करनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में विशेष विचार पीछे 'धवलागत-विषय-परिचय' के प्रसंग में किया जा चुका है।
२२. संतकम्मपाहुड-यह पूर्वोक्त 'संतकम्मपयडिपाहुड' का ही नामान्तर है अथवा स्वतंत्र कोई ग्रन्थ रहा है, यह कुछ कहा नहीं जा सकता है। नामान्तर को कल्पना इसलिए की जा रही है कि पूर्वोक्त उपक्रम के प्रसंग में धवलाकार ने जहां उसका उल्लेख 'संतकम्मपयडिपाहुड' के नाम से किया है वहीं उसी के स्पष्टीकरण में पंजिकाकार ने उसी का उल्लेख संतकम्मपाहुड के नाम से किया है। साथ ही उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने 'वेदना' के अन्तर्गत वेदनाद्रव्य विधान आदि (४,६ व ७) व 'वर्गणा' के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार को सत्कर्मप्राभूत कहा है, ऐसा प्रतीत होता है जो स्पष्ट भी नहीं है। मोहनीय की अपेक्षा कषायप्राभूत भी सत्कर्मप्राभूत कहा है।
इसमें कुछ प्रामाणिकता नहीं है, कल्पना मात्र दिखती है। इस संतकम्मपाहुड का भी उल्लेख धवला में दो स्थानों पर किया गया है
(१) जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२७) की व्याख्या करते हुए क्षपणाविधि के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि अनिवत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होकर वहाँ उसके काल के संख्यात बहुभाग को अपूर्वकरण की विधि के अनुसार बिताकर उसका संख्यातवाँ भाग शेष रह जाने पर तीन स्त्यानगृद्धि प्रकृतियों को आदि लेकर १६ प्रकृतियों का क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर चार प्रत्याख्यानावरण और चार अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों का एक साथ क्षय करता है । यह सत्कर्मप्राभूत का उपदेश है । किन्तु कषायप्राभूत के उपदेशानुसार आठ कषायों का क्षय हो जाने पर तत्पश्चात् उपर्युक्त १६ प्रकृतियों का क्षय होता है।'
(२) वेदनाक्षेत्रविधान अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट क्षेत्रवेदना की प्ररूपणा करते हुए अन्त में सूत्र (४,२,५,१२) में कहा गया है कि इस क्रम से जो वह मत्स्य अनन्तर
१. धवला, पु० ६, पृ० ३१८-१६ २. धवला, पु० १५, पृ० ४२-४३ ३. धवला, पु० १५, पृ० ४३ और 'संतकम्मपंजिया' पृ० १८ (पु० १५ का परिशिष्ट) ४. धवला, पु० १, पृ० २१७ व २२१ ६०४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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