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________________ जीव, भव्य और उपयोगादिस्वरूप वेदना पारिणामिक वेदना कहलाती है। अजीवभाववेदना औदयिक और पारिणामिक के भेद से दो प्रकार की है। इनमें प्रत्येक पांच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और आठ स्पर्श आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। यहां जीवशरीरगत उन रसादिकों को औदयिक और शुद्ध पुद्गलगत उक्त रसादिकों को पारिणामिक वेदना जानना चाहिए (पु. १०, पृ० ५-८)। (२) वेदनानयविभाषणता-इस अनुयोगद्वार में कोन नय किस वेदना को स्वीकार करता है और किसे स्वीकार नहीं करता है, इसका स्पष्टीकरण मूल सूत्रों (१-४) में किया गया है। उपर्युक्त वेदनाओं में यहाँ किस नय की अपेक्षा कौन-सी वेदना प्रकृत है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा बन्ध, उदय व सत्त्वस्वरूप नोआगमकर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा उदयगत कर्मद्रव्यवेदना प्रकृत है । सूत्र (४) में कहा गया है कि शन्दनय नामवेदना और भाववेदना को स्वीकार करती है। इस सम्बन्ध में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि शब्दनय की अपेक्षा कर्म के बन्ध और उदय से उत्पन्न होनेवाली भाववेदना का यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि यहां भाव की अपेक्षा प्ररूपणा नहीं की जा रही है (पु० १०, पृ० १२)। (३) वेदनानामविधान-इस प्रसंग में यहाँ प्रथमतः नैगम और व्यवहारनय की अपेक्षा वेदना का विधान कहा जाता है, ऐसी सूचना करते हुए धवला में कहा गया है कि नोआगमकर्मद्रव्यवेदना ज्ञानावरणीयादि के भेद से आठ प्रकार की है, क्योंकि उनके बिना अज्ञान व अदर्शन आदिरूप जो आठ प्रकार का कार्य देखा जाता है वह घटित नहीं होता। कार्य का भेद कारण के भेद से ही हुआ करता है। आगे नामप्ररूपणा के प्रसंग में 'ज्ञानावरणीयवेदना' नाम को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो ज्ञान का आवरण करता है उस कर्मद्रव्य का नाम ज्ञानावरणीय है। 'ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीयवेदना' इस प्रकार से कर्मधारय समास का विधान कर 'ज्ञानावरणीयस्य वेदना इस प्रकार के तत्पुरुष समाम का निषेध किया है, क्योंकि द्रव्याथिकनयों में भाव की प्रधानता नहीं होती। तदनुसार यहाँ ज्ञानावरणीय कर्म द्रव्य ही 'ज्ञानावरणीय वेदना' के रूप में विवक्षित है। ४. वेदनाद्रध्यविधान-इस अनुयोगद्वार में वेदनारूप द्रव्य की प्ररूपणा की गयी है । उसमें सूत्रकार ने इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। पदमीमांसा को स्पष्ट करते हुए धवला में पद के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-व्यवस्थापद और भेदपद । जिसका जिसमें अवस्थान होता है उसका वह पद होता है, उसे स्थान भी कहा जाता है। जैसे-सिद्धों का पद सिद्धक्षेत्र तथा अर्थावगम का पद अर्थालाप। भेदपद को स्पष्ट करते हुए उसकी निरुक्ति इस प्रकार की गयी है-पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । अर्थात् जो जाना जाता है वह 'पद' है। भेद, विशेष व पृथक्त्व ये समानार्थक शब्द हैं। यहाँ कर्मधारय समास-(भेद एव पदं भेदपदम्) के आश्रय से भेदरूप पद को ही भेदपद कहा गया है। यहाँ अधिकार विवक्षा से भेदपद तेरह हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्र व, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोम-नोविशिष्ट । इस अनुयोगद्वार में इन्हीं तेरह पदों की मीमांसा की गयी है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट, ४७८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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