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________________ धवलाकार ने यह सूचना की है कि मोहनीय कर्म के सत्कर्मविषयक स्वामित्व की प्ररूपणा जैसे कसायपाहुड में की गयी है वैसे ही उसकी प्ररूपणा यहाँ भी करनी चाहिए।' (१७) यहीं पर आगे भी धवलाकार ने यह सूचना की है कि मोहनीय के प्रकृतिस्थानसत्कर्म की प्ररूपणा जैसे कसायपाहुड में की गयी है वैसे उसकी प्ररूपणा यहाँ करनी चाहिए। इस प्रकार धवलाकार ने कषायप्राभृतचूणि का उल्लेख कहीं कसायपाहुंडसुत्त, कहीं पाडसुत्त, कहीं चुण्णिसुत्त और कहीं पाहुडचुण्णिसुत्त इन नामों से किया है। इनमें से अधिकांश के उदाहरण ऊपर दिये जा चुके हैं। चुण्णिसुत्त जैसे (१८) बन्धस्वामित्वविचय में उदयव्युच्छेद की प्ररूपणा करते हुए धवला में महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के उपदेशानुसार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में इन दस प्रकृतियों के उदयव्युच्छेद का निर्देश किया गया है--मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । ___ इसी प्रसंग में आगे चूणिसूत्रकर्ता के उपदेशानुसार उक्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उपर्यक्त दस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पाँच का ही उदयव्युच्छेद कहा गया है, क्योंकि उनके उपदेशानुसार चार जातियों और स्थावर इन पांच का उदय व्युच्छेद सासादनगुणस्थान में होता है। (१६) पाहुडसत्त जैसे-जीवस्थान-अन्तरानुगम में सूत्र २२३ में क्रोधादि चार कषायवाले जीवों का अन्तर मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक-क्षपक तक मनोयोगियों के समान कहा गया है। इस पर धवला में यह शंका उठायी गयी है कि तीन क्षपकों का नाना जीवों की अपेक्षा वह उत्कृष्ट अन्तर मनोयोगियों के समान छह मास घटित नहीं होता, क्योंकि विवक्षित कपाय से भिन्न एक, दो और तीन के संयोग के क्रम से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले क्षपकों का अन्तर छह मास से अधिक उपलब्ध होता है। इस शंका के उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ओघ से जो चार मनोयोगी क्षपकों का उत्कृष्ट अन्तर छह मास कहा गया है, वह इसके बिना बनता नहीं है (देखिए सूत्र १,६,१६-१७ व १५६)। इससे चार कषायवाले क्षपकों का वह उत्कृष्ट अन्तर छह मास ही सिद्ध होता है । आगे वे कहते हैं कि ऐसा मानने पर पाहुडसूत्र के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि उसका उपदेश भिन्न है (धवला पु० ५, पृ० १११-१२) । ___कषायप्राभृत में जघन्य अनुभागसत्कर्म से युक्त तीन संज्वलनकषाय वाले और पुरुषवेदियों का उत्कृष्ट अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा साधिक वर्ष प्रमाण कहा गया है। प्रकृत जीवस्थान-अन्तरानुगम में वेदमार्गणा के प्रसंग में पुरुषवेदी दो क्षपकों का उत्कृष्ट अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा साधिक वर्ष प्रमाण कहा गया है। -सूत्र १,६,२०४-५ १. धवला, पु० १६, पृ० ५२३; क०पा० सुत्त पृ० १८४.६७ आदि २. वही, पृ० ५२७-२८; क०पा० सुत्त, पृ० ७५-७६ ३. धवला, पु० ८, पृ०६ ४. तिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण - एगसमओ। उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं ।-क०पा० सुत्त, पृ० १७०, चूणि १४५-४७ ५८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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