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स्थान है । वही सत्कर्मस्थान है । यही क्रम द्विचरम अनुभागबन्धस्थान में है। इस प्रकार पश्चादानुपूर्वी से तब तक ले जाना चाहिए जब तक प्रथम अनन्तगुणाहीन बन्धस्थान नहीं प्राप्त होता है । पूर्वानुपूर्वी से गणना करने पर जो अनन्तगुणा बन्धस्थान है उसके नीचे अनन्तगुणा हीन अनन्तर स्थान है । इस अन्तर में असंख्यात लोकमात्र घात स्थान हैं । वे ही सत्कर्मस्थान हैं" यह इस पाहुडसुत से जाना जाता है । "
(१३) इसी वेदनाभावविधान की तीसरी चूलिका में सूत्रकार द्वारा निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम के प्रसंग में जीवों से सहित स्थान एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से उत्कृष्ट रूप में आवली के असंख्यातवें भाग मात्र निर्दिष्ट किये गए हैं । —सूत्र ४, २, ७; २७०
इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि कसायपाहुड में 'उपयोग' नाम का अर्थाधिकार है । वहाँ कहा गया है कि कषायोदयस्थान असंख्यात लोक मात्र हैं । उनमें वर्तमान काल में जितने त्रस हैं उतने मात्र उनसे पूर्ण हैं । ऐसा कषायपाहुडसुत्त में कहा गया है । इस लिए यह वेदनासूत्र का अर्थ घटित नहीं होता है ।
इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि जिन भगवान् के मुख से निकले हुए व अविरुद्ध आचार्य - परम्परा से आये हुए सूत्र की अप्रमाणता का विरोध है । आगे वहाँ प्रकृत दोनों सूत्रों में समन्वय करते हुए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यहाँ ( वेदनाभावविधान में) अनुभागबन्ध्याध्यवसानस्थानों में जीवसमुदाहार की प्ररूपणा की गयी है, पर कसायपाहुड में कषायउदयस्थानों में उसकी प्ररूपणा की गयी है, इसलिए दोनों सूत्रों में परस्पर विरोध नहीं है (धवला पु० १२, पृ० २४४-४५) ।
(१४) उपक्रम अनुयोगद्वार में उपशामना उपक्रम के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि करणोपशामना दो प्रकार की है- देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । इनमें सर्वकरणीपशामना के अन्य दो नाम ये हैं- गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वोपशामना की प्ररूपणा कसा पाहुड में की जावेगी । 3
(१५) संक्रम अनुयोगद्वार में प्रकृतिस्थानसंक्रम के प्रसंग में स्थानसमुत्कीर्तना की प्ररूपणा करते हुए धवला में यह सूचना की गयी है कि मोहनीय की स्थानसमुत्कीर्तना जैसे कषायपाहुड की गयी है वैसे ही उसे यहाँ भी करनी चाहिए ।
(१६) इसी प्रकार से आगे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में भी सत्कर्मप्ररूपणा के प्रसंग में
१. देखिए धवला पु० १२, पृ० २२१ तथा क०षा० सुत्त, पृ० ३६२-६३, चूर्णि ५२६-३० २. कसायपाहुड में यह प्रसंग उसी रूप में इस प्रकार उपलब्ध होता है
कसायुदयट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा । तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि आवृण्णाणि । - क०पा० सुत्त पृ० ५६३, चूर्णि २६१-६२ ३. देखिए धवला पु० १५, पृ० २७५ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७०७-८, चूर्णि २९६ ३.६ ( उपशामना की यह प्ररूपणा दोनों ग्रन्थों में प्रायः शब्दशः समान है। विशेषता यहाँ यह रही है कि धवलाकार ने जहाँ सर्वकरणोपशामना के प्रसंग में 'एसा सव्वकरणुवसामणा कसा पाहुडे पर विज्जिहिदि' ऐसी सूचना की है वहाँ कसायपाहुड में देशकरणोपशामना के प्रसंग में 'एसा कम्पयडीसु' (चूर्णि ३०४) ऐसी सूचना की गयी है । )
४. धवला, पु० १६, पृ० ३४७ तथा क०पा० सुत्त, पृ० २८८-३०६'
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ग्रन्थोल्लेख / ५७६
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